खेती की जमीन बचाने को
पहला बड़ा किसान आन्दोलन
बड़ों के लाभ के लिए होता
है जमीन अधिग्रहण, प्राधिकरणों की भूमिका संदिध
-सर्वेश कुमार सिंह-
खेती की जमीन बचाने के
लिए उत्तर प्रदेश में पहला बड़ा किसान आन्दोलन शुरु हो रहा
है। इसका आगाज गत सप्ताह हो गया था। जब अलीगढ़ के टप्पल में
किसानों की भूमि अधिग्रहण पर आन्दोलन शुरु हुआ था और पुलिस
ने फायरिंग करके तीन किसानों को मौत के घाट उतार दिया था।
अब इस मामले पर समूचा विपक्ष एकजुट है। किसान संघर्ष समिति
ने कल (आज) प्रदेश बंद और परसों 26 अगस्त को संसद घेराव का
ऐलान किया है। आन्दोलनकारियों को प्रदेश के विपक्षी दलों
सपा,भाजपा, कांग्रेस, रालोद के अलावा भारतीय किसान यूनियन
ने भी समर्थन दिया है। लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से प्रदेश में
सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी ने भी संसद घेराव को समर्थन
दिया है। पार्टी प्रमुख मायावती ने संसद घेराव में बसपा के
शामिल होने की भी घोषणा की है।
प्रदेश में
खेती की जमीन अधिग्रहण से किसान लम्बे अरसे से त्रस्त हैं।
औने पौने दामों में किसानों की जमीनें हथियाने के बाद ऊंची
कीमतों पर बिल्डरों को बेचने तथा आवासीय कालोनियां बनाकर
मुनाफा कमाने की सिलसिला प्रदेश में लगभग तीस साल से चल रहा
है। विकास प्राधिकरणों ने प्रदेश में अधिकाशंत: उपजाऊ कृषि
भूमि का ही अधिग्रहण किया है। इसके कारण किसान बर्बाद होते
रहे हैं। प्रदेश का एक भी प्राधिकरण ऐसा नहीं है जिसने कभी
यह कोशिश की हो कि अनउपजाऊ भूमि को विकसित करके कालोनी
बनायी हो। इतना ही नहीं विकास प्राधिकरणों द्वारा
अधिग्रहीत की गई कई योजनाएं तो ऐसी हैं जो आज तक विकसित भी
नहीं हुईं और किसानों की जमीन भी चली गई। इस जमीन को
प्राधिकरणों ने सैकड़ों रूपये वर्ग मीटर में लेकर हजारों
रूपये वर्ग मीटर में बेचा और बिल्डरों के काम्पलेक्स बनवा
दिये। इससे सवाल उठता है कि आखिर प्राधिकरण किसके लिए हैं।
जनता को सस्ते आवास देने के लिए या बिल्डरों का कारोबार
कराने के लिए। यदि बिल्डरों को सीधे किसानों से जमीन लेनी
पड़ती तो यह उन्हें महंगे दाम पर मिलती। इससे किसानों को
अधिक लाभ मिल जाता।
ऐसी एक योजना
मुरादाबाद विकास प्राधिकरण की है। इस प्राधिकरण ने नया
मुरादाबाद योजना के तहत लगभग 500 एकड़ जमीन दस साल पहले
अधिग्रहीत की। सभी जमीनों पर प्लाट बांट दिये गए। किन्तु
कालोनी आज तक विकसित नहीं हुई। कारण लोगों को मकान की उतना
आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि कुछ पैसे वालों को इंवेस्टमेंट
करना था। अत: उन्होंने प्लाट ख्ररीद कर डाल दिये। इतना ही
नहीं एमडीए ने दिल्ली रोड के किनारे की जमीनें दिल्ली-नोएडा
के बडे बिल्डरों की बेच दीं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि
यह योजना सिर्फ बड़े बिल्डरों को लाभ पहुंचाने के लिए ही
शुरु की गई थी। एमडीए का कारनामा अकेला उदाहरण नहीं है। ऐसा
प्रदेश के और भी कई प्राधिकरणों ने किया है।
उत्तर
प्रदेश में भूमि अधिग्रहण का मुद्दा ऐसा है कि इस पर कोई
भी राजनीतिक दल पाक साफ नहीं है। बसपा के खिलाफ तो आन्दोलन
ही हो रहा है। इसके पहले सपा की सरकार में वर्ष 2004 में
दादरी में किसानों ने जमीन बचाने तथा अधिक मुआवजे के लिए
आन्दोलन किया था। उस समय भी यह मामला विधान सभा में गूंजा
था तथा हाई कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा था। सपा सरकार ने
ही 2006 में हाईटेक टाउनशिप की आधार शिला रखी थी। जिसके
तहत आज जे.पी.एसोसिएट को टाउनशिप के लिए जमीन दी जा रही
है। कांग्रेस ने एसईजेड बनवाये हैं। औद्योगिक घरानों को
जमीन देने में कांग्रेस भी आगे रही है।
प्रदेश बंद
के साथ शुरु हो रहे आन्दोलन में किसानों की दो प्रमुख मांगें
हैं। उनकी पहली मांग है कि प्रदेश की बसपा सरकार को
बर्खास्त किया जाए। दूसरी मांग है भूमि अधिग्रहण के कानून
में बदलाव किया जाए। इन दोनों मांगों को विपक्ष का समर्थन
है। यह दोनों मांगें केन्द्र सरकार से सम्मबन्धित हैं।
सरकार बर्खास्तगी की मांग भी केन्द्र से की जा रही है तथा
भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन भी केन्द्र सरकार को करना
है। भूमि अधिग्रहण पर प्रदेश में कल से शुरु हो रहा
आन्दोलन इतना पेचीदा हो गया है कि यह किसके खिलाफ है? यही
स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। क्योंकि जिस सरकार की बर्खास्तगी
की मांग की जा रही है। उसकी संचालक पार्टी बसपा ने संसद
घेराव को अधिग्रहण कानून बदलने के लिए न केवल समर्थन की
घोषणा की है बल्कि वह घेराव में शामिल भी होगी। दूसरी ओर
कांग्रेस ने जिसे अधिग्रहण कानून में बदलाव करना है वह
प्रदेश में सरकार बर्खास्तगी की मांग का समर्थन कर रही है।
कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी किसानों के बीच
पहुंच कर उनकी मांगों का समर्थन कर चुके हैं।
हालांकि
संसद घेराव में बसपा के समर्थन पर किसान संघर्ष समिति ने
अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। लेकिन इतना तय है कि
किसानों के बीच बसपा की छवि खराब हो चुकी है। इसकी भरपाई
बसपा के लिए मुश्किल होगी। उधर सपा पर भी जनता यादा
विश्वास करने को तैयार नहीं है। रालोद और भाजपा ने इस
आन्दोलन में जरूर किसानों सहानुभूति से बढ़त ले रखी है।
(उप्रससे)
24 aug 10
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कारगिल विजय और हमारा संकल्प
-सर्वेश कुमार सिंह-
कारगिल में विजय
Kargil Vijai प्राप्त किये हुए आज 26 जुलाई 2010 को हमें
ठीक 11 साल बीत गए। हमने आज के दिन कारगिल में पूर्ण विजय
की घोषणा के बाद विजय दिवस मनाने का फैसला किया था। साथ ही
यह संकल्प भी लिया था कि अब दुश्मन को ऐसा मौका कभी नहीं
देंगे जो वह हमारी पीठ में फिर से छुरा भोंक सके। क्योकि
कारगिल का यह युद्ध ही छल और फरेब की परिणति था। भारत के
तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान के
अपने समकक्ष नवाज शरीफ के साथ शांति वार्ता चला रहे थे, और
उधर सीमा पार से कारगिल में चुपचाप घुसपैठ हो रही थी।
दुनिया ने देखा कि वार्ता की मेज और युद्ध का सामान एक साथ
सजाया जा रहा था।
अन्ततः कारगिल में 15 जुलाई 1999 के बाद
घुसपैठ की पुख्ता सूचना और प्रमाण के बाद हमारी सेनाओं ने
एक ऐसा मोर्चा संभाल लिया, जो दुनिया का सबसे कठिन
रणक्षेत्र था। यह दुनिया का पहला युद्ध था जोकि 18000 फीट
की ऊंची बर्फीली पहाडियों पर लड़ा गया। इतना ही नहीं इस
युद्ध में हमारे सैनिक शीतकालीन साजोसामान से भी पूरी तरह
लैस नहीं थे। हमारे पास तोप खोजी राडारों की कमी थी। जिसकी
वजह से शहीदों की संख्या बढी। शहीद हुए हमारे सैनिकों में
से 80 प्रतिशत दुश्मन की तोपों के गोलों के शिकार हुए थे।
दुश्मन पहले से ऊंचाई पर मोर्चा संभाले था। उसने पक्के
बंकर बना रखे थे। ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी जीत भारतीय
सेनाओं की हुई। कुल 74 दिन के युद्ध में हमने दुनिया को
दिखा दिया कि भारत की राष्ट्रभक्ति और अदम्य साहस का दुनिया
में कोई मुकाबला नहीं है।
कारगिल में हमें विजय मिली, किन्तु यह
कितनी बड़े बलिदान के बाद। हमारे 407 सैनिकों ने मातृभूमि
की रक्षा करते हुए प्राणों का उत्सर्ग किया। लगभग छह सौ
जवान घायल हुए। देश ने एक हजार करोड़ रूपया व्यय किया।
हमारा देश सीमाओं की रक्षा के लिए एकजुट दिखायी दिया। हमने
अपने नेतृत्व पर भरोसा किया कि वह अब पाकिस्तान के ऐसे किसी
झांसे में नहीं आएगा। लेकिन हमने देखा कि शत्रु ने कारगिल
की पराजय से कोई सबक नहीं लिया और उसने मुम्बई में देश का
सबसे बड़ा आतंकी हमला किया। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण मिले,
सभी प्रमाणों की पुष्टि हो गई है।
लेकिन दुर्भाग्य कि हमने एक बार फिर अपने
संकल्प को भुला दिया। हम फिर से उसी पाकिस्तान के साथ
वार्ता की मेज पर पहुंच गए। जो भारत में खुले आतंक का खेल
खेलने का दोषी है जो कारगिल का अपराधी है। हमने अपने जवानों
की शहादत को भी भुला दिया। और एक बार फिर शांति वार्ताओं
का दौर शुरु कर दिया। परिणाम वही जो हमेशा होता है। हमारे
विदेश मंत्री को 15 जुलाई की विफल वार्ता के बाद स्वदेश
लौटने से पहले पाक विदेश मंत्री ने अपमानित कर दिया। एक
महीने पहले ही हमारे गृह मंत्री भी पाकिस्तान का दौरा कर
आये थे। लेकिन हासिल कुछ नहीं हुआ था।
आज स्थिति यह है कि पाकिस्तान हमसे
वार्ता के लिए शर्तं लगा रहा है। उसने फिर से कश्मीर का
राग अलापना शुरु कर दिया है। यह सब इसीलिए हो रहा है
क्योंकि हमने भुला दिया कारगिल का सबक और भूल गए अपना
संकल्प। (उप्रससे)
25 july 10 |