अपने बारे में खुद ही कोई फैसला करना हो,
तो यह कठिन ही नहीं बेहद कठिन काम है। वह
तब जब न्याय करना हो, किसी मुकदमे का फैसला
करना हो, तो कितना मुश्किल काम होगा। यह
सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों से अधिक
कोई नहीं जान सकता, जिन्होंने बुधवार को
ऐसा फैसला सुना दिया, जिसे इतिहास में याद
किया जाएगा। एक याचिका दायर कर सर्वोच्च
न्यायालय की भी जवाबदेही तय करने का
प्रश्न अदालत के सामने आया, कि क्या इसे
सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के दायरे
में होना चाहिए अथवा नहीं। सर्वोच्च
न्यायालय के काम काज और निर्णय प्रक्रिया
क्या सूचना अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत
होने चाहिए अथवा नहीं ? इस सवाल का जवाब
सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की
अध्यक्षता में दिया । फैसला साहस के साथ
दिया गया, जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए।
सर्वोच्च अदालत ने कहा कि चूंकि मुख्य
न्यायाधीश का कार्यालय भी सार्वजनिक
प्राधिकरण है, इसलिए इसे सूचना अधिकार के
दायरे में होना चाहिए। यह कह देना साधारण
बात नहीं है कि हम अपने बारे में भी
बताएंगे। अपने फैसले पर पूछे गए सवाल भी
बताएंगे। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला,
केवल एक फैसला नहीं है, बल्कि यह न्यायिक
इतिहास में मील का पत्थऱ साबित होगा ।
क्योंकि इससे सूचना अधिकार अधिनियम को बल
मिलेगा। इस कानून की ताकत से बहुत सारे ऐसे
लोग जो कुछ छिपाना चाहते हैं, परेशान हैं।
वे इसे लगातार कमजोर करना चाहते हैं।
क्योंकि, इससे आम आदमी को बल मिल रहा है,
भ्रष्टाचार पर कुछ सीमा तक लगाम लगाने में
इस कानून की भूमिका है। यह कहने में कोई
गुरेज नहीं होना चाहिए कि इस अधिनियम को
कमजोर करने की सबसे ज्यादा कोशिशें
ब्यूरोक्रेसी की ओर से ही होती रही हैं।
सर्वोच्च प्रशानिक तंत्र भी इसे कमजोर करने
की कोशिश करता है। अभी नहीं, बल्कि तभी से
जब यह कानून बना था। इस संबंध में उत्तर
प्रदेश सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त
और पूर्व मुख्य सचिव जावेद उस्मानी का एक
वक्तव्य समीचीन है। लखनऊ में आयोजित एक
आरटीआई से संबंधित सेमिनार में मुख्य
अतिथि के रूप में बोलते हुए उन्होंने
खुलासा किया कि जब यह कानून बन रहा था तो
इसका सबसे ज्यादा विरोध आईएएस अधिकारियों
ने ही किया था। उन्होंने बताया कि जब
कानून तैयार किया जा रहा था, तब वे
प्रधानमंत्री कार्यालय में तैनात थे। उनके
पास इस कानून की तैयारी से संबंधित काम भी
था। उन्होंने कहा कि आईएएस चाहते थे कि इस
कानून में सूचना मांगे जाने से संबंधित
कुछ और अधिक कडे प्राविधान जोडे जाएं ताकि
हर सूचना न मांगी जा सके । ऐसे स्थिति में
जब एक बड़ा वर्ग इसे कमजोर करने की साजिश
करता रहा हो तो सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
ऐतिहासिक न्यायिक साहस के रूप में याद किया
जाएगा। जहां सर्वोच्च न्यायालय ने पूरी
निष्ठा और प्रतिबद्धता के साथ इस पर अपना
मत प्रकट कर दिया है, अब वहीं समाज और देश
की जिम्मेदारी है कि इस कानून का सदुपयोग
विधि और विवेक सम्मत ढंग से करे। इसे किसी
भी रूप में व्यक्तिगत रंजिश या निजी
स्वार्थ के लिए हथियार नहीं बनाया जाए।
सूचना मांगने वाले को यह भी ध्यान में रखना
होगा कि मांगी गई सूचना का देशहित पर कोई
प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं होगा।
राष्ट्रीयसुरक्षा और देश की एकता अखण्डता
से जुड़ी कोई सूचना नहीं मांगी जानी चाहिए।
इस फैसले के लिए रंजन गोगोई और उनकी पीठ
बधाई की पात्र है। ( उप्रससे ) |