अयोधया की गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है।
अयोधया का इतिहास भारत की संस्कृति का
इतिहास है। अयोधया सूर्यवंशी प्रतापी
राजाओं की राजधाानी रही, इसी वंश में
महाराजा सगर, भगीरथ तथा सत्यवादी
हरिशचन्द्र जैसे महापुरुष उत्पन्न हुए, इसी
महान परम्परा में प्रभु श्रीराम का जन्म
हुआ। पाँच जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि
अयोधया है। गौतम बुध्द की तपस्थली दंत
धाावन कुण्ड भी अयोधया की ही धारोहर है।
गुरुनानक देव जी महाराज ने भी अयोधया आकर
भगवान श्रीराम का पुण्य स्मरण किया था,
दर्शन किए थे। अयोधया में ब्रह्मकुण्ड
गुरूद्वारा है। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु
श्रीराम का जन्मस्थान होने के कारण पावन
सप्तपुरियों में एक पुरी के रूप में अयोधया
विख्यात है। विश्व प्रसिध्द स्विट्स्बर्ग
एटलस में वैदिक कालीन, पुराण व महाभारत
कालीन तथा 8वीं से 12वीं, 16वीं, 17वीं
शताब्दी के भारत के सांस्कृतिक मानचित्र
मौजूद हैं। इन मानचित्रों में अयोधया को
धाार्मिक नगरी के रूप में दर्शाया गया है।
ये मानचित्र अयोध्या की प्राचीनता और
ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं।
सरयु तट पर बने प्राचीन पक्के घाट शताब्दियों
से भगवान श्रीराम का स्मरण कराते आ रहे
हैं। श्रीराम जन्मभूमि हिन्दुओं की आस्था
का प्रतीक है। अयोधया मन्दिरों की ही नगरी
है। हजारों मन्दिर हैं, सभी राम के हैं।
सभी सम्प्रदायों ने भी ये माना है कि
वाल्मीकि रामायण में वर्णित अयोधया यही
है।
आक्रमण का प्रतिकार
श्रीराम जन्मभूमि पर कभी एक भव्य विशाल
मन्दिर खड़ा था। 1528 ईस्वी में धाार्मिक
असहिष्णु, आतताई, इस्लामिक आक्रमणकारी
बाबर के क्रूर प्रहार ने जन्मभूमि पर खड़े
सदियों पुराने मन्दिर को धवस्त कर दिया।
आक्रमणकारी बाबर के कहने पर उसके सेनापति
मीरबाकी ने मन्दिर को तोड़कर ठीक उसी स्थान
पर एक मस्जिद जैसा ढांचा खड़ा कराया। इस
कुकृत्य से सदा-सदा के लिए हिन्दू समाज के
मस्तक पर पराजय का कलंक लग गया। श्रीराम
जन्मस्थान पर मन्दिर का पुन:निर्माण इस
अपमान को धाोने के लिए तथा हमारी आस्था की
रक्षा के लिए भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने
हेतु आवश्यक है।
इस स्थान को प्राप्त करने के लिए अवधा का
हिन्दु समाज 1528 ई. से ही निरन्तर संघर्ष
करता आ रहा है। सन् 1528 से 1949 ई. तक
जन्मभूमि को प्राप्त करने के लिए 76 युध्द
हुए। इस संघर्ष में भले ही समाज को पूर्ण
सफलता नहीं मिली पर समाज ने कभी हिम्मत भी
नहीं हारी। आक्रमणकारियों को कभी चैन से
बैठने नहीं दिया। बार-बार लड़ाई लड़कर
जन्मभूमि पर अपना कब्जा जताते रहे। हर
लड़ाई में जन्मभूमि को प्राप्त करने की दिशा
में एक कदम आगे बढ़े। 1934 ई. का संघर्ष तो
जग जाहिर है, जब अयोधया की जनता ने ढांचे
को भारी नुकसान पहुँचाया था।
इन सभी संघर्षों में लाखों रामभक्तों ने अपना
सर्वस्व समर्पण कर आहुतियाँ दी। 6 दिसम्बर,
1992 की घटना इस सतत् संघर्ष की ही अन्तिम
परिणिति है, जब गुलामी का प्रतीक तीन
गुम्बद वाला मस्जिद जैसा ढांचा ढह गया और
श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर के
पुन:निर्माण का मार्ग खुल गया।
ढांचे की रचना
तीन गुम्बदों वाले तथाकथित बाबरी मस्जिद कहे
जाने वाले इस ढांचे में सदैव प्रभु
श्रीराम की पूजा-अर्चना होती रही। इसी
ढांचे में काले रंग के कसौटी पत्थर के 14
खम्भे लगे थे, जिस पर हिन्दु धाार्मिक
चिन्ह् उकेरे हुए थे। जो यह बताते थे कि
पुराने मन्दिर के कुछ पत्थर मीरबाकी ने इस
मस्जिदनुमा ढांचे के निर्माण में लगवाए।
यह भी तथ्य है कि वहाँ कोई मीनार नहीं थी,
वजु करने के लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं
थी। ढांचे के पूर्व दिशा में प्रवेशद्वार
के बाहर एक चबूतरा था। इसे रामचबूतरा कहते
हैं। इस पर प्रभु श्रीराम के विग्रह का
पूजन अकबर के शासनकाल से होता चला आ रहा
था। संपूर्ण परिसर एक चारदीवारी से घिरा
था। प्रवेश द्वार एक ही था। इस परिसर की
अधिकतम लंबाई 130 फीट तथा चौड़ाई 90 फीट
थी। अर्थात् कुल क्षेत्रफल अधिकतम 12000
वर्गफीट था।
भ्रमणकारी पादरी की डायरी
श्रीराम जन्मभूमि पर बने मन्दिर को तोड़कर
मस्जिद बनाने का वर्णन अनेक विदेशी लेखकों
और भ्रमणकारी यात्रियों ने किया है। फादर
टाइफैन्थेलर का यात्रा वृत्ताान्त इसका
जीता-जागता उदाहरण है। आस्ट्रिया के इस
पादरी ने 45 वर्षों तक (1740 से 1785)
भारतवर्ष में भ्रमण किया, अपनी डायरी लिखी।
लगभग पचास पृष्ठों में उन्होंने अवधा का
वर्णन किया। उनकी डायरियों का फ्रैंच भाषा
में अनुवाद 1786 ईस्वी में बर्लिन से
प्रकाशित हुआ है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है
कि अयोध्या के रामकोट मोहल्ले में तीन
गुम्बदों वाला ढांचा है उसमें 14 काले
कसौटी पत्थर के खम्भे लगे हैं, इसी स्थान
पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों के
साथ जन्म लिया। जन्मभूमि पर बने मन्दिर को
बाबर ने तुड़वाया। आज भी हिन्दू इस स्थान
की परिक्रमा करते हैं, यहाँ साष्टांग
दण्डवत करते हैं।
भगवान का प्राकटय
समाज की श्रध्दा और इस स्थान को प्राप्त करने
के सतत् संघर्ष का एक रूप आजादी के बाद 22
दिसम्बर, 1949 की रात्रिा को देखने को मिला,
जब ढांचे के अन्दर भगवान प्रकट हुए। पंडित
जवाहर लाल नेहरू उस समय देश के
प्रधाानमंत्री, उत्तार प्रदेश के
मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत और फैजाबाद
के जिलाधिकारी के. के. नायर एवं ओनरेरी
मजिस्टे्रट ठाकुर गुरुदत्त सिंह थे। नायर
साहब ने ढांचे के सामने की दीवार में लोहे
के सींखचों वाला दरवाजा लगवाकर ताला डलवा
दिया, भगवान की पूजा के लिए पुजारी
नियुक्त हुआ। पुजारी रोज सबेरे-शाम भगवान
की पूजा के लिए भीतर जाता था, भगवान् की
पूजा-अर्चना करता था, भोग लगाता था, शयन व
जागरण आरती करता था परन्तु जनता ताले के
बाहर से पूजा करती थी। इस घटना के बाद
अनेक श्रध्दालु वहाँ अखण्ड कीर्तन करने
बैठ गए, जो 6 दिसम्बर, 1992 तक उसी स्थान
पर होता रहा।
ताला खुला
इसी ताले को खुलवाने का संकल्प सन्तों ने 8
अप्रैल, 1984 को विज्ञान भवन, दिल्ली में
लिया। यही सभा प्रथम धार्मसंसद कहलाई।
श्रीराम जानकी रथों के माधयम से व्यापक
जन-जागरण हुआ। ताला खोलने के लिए फैजाबाद
के ही एक अधिवक्ता ने जिला न्यायाधाीश श्री
के. एम. पाण्डेय के समक्ष प्रार्थना पत्र
दे दिया। ताला लगाने का कारण खोजा गया।
उत्तर मिला कि शांति व्यवस्था के नाम पर
ताला लगा है। जिला प्रशासन से पूछा गया कि
ताला खुलने पर आप शांति व्यवस्था बनाए रख
सकते हैं अथवा नहीं ? प्रशासन का उत्तर था
ताले का शांति व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं।
अन्तंत: जिला न्यायाधीश ने 01 फरवरी, 1986
को ताला खोलने का आदेश दे दिया। उस समय
उत्तार प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के
श्री वीरबहादुर सिंह थे।
शिलापूजन व शिलान्यास
भावी मन्दिर का प्रारूप बनाया गया। अहमदाबाद
के प्रसिध्द मन्दिर निर्माण कला विशेषज्ञ
श्री सी.बी. सोमपुरा ने प्रारूप बनाया।
मन्दिर निर्माण के लिए जनवरी, 1989 में
प्रयागराज में कुम्भ मेला के अवसर पर
पूज्य देवराहा बाबा की उपस्थिति में
गांव-गांव में शिलापूजन कराने का निर्णय
हुआ। पहला शिलापूजन बद्रीनाथधाम में
जगद्गुरु शंकराचार्य ज्योतिषपीठाधीश्वर
पूज्य स्वामी शांतानंद जी महाराज की
उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। पूज्य देवराहा
बाबा ने शिलाओं को आशीर्वाद दिया। पौने
तीन लाख शिलाएं पूजित होकर अयोधया पहुँची।
विदेश में निवास करने वाले हिन्दुओं ने भी
मन्दिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके
भारत भेजीं। पूर्व निधर्ाारित दिनांक 09
नवम्बर, 1989 को सबकी सहमति से मन्दिर का
शिलान्यास बिहार निवासी श्री कामेश्वर
चौपाल के हाथों सम्पन्न हुआ। तब उत्तार
प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री
नारायण दत्त तिवारी और भारत सरकार के
गृहमंत्री श्री बूटा सिंह तथा
प्रधाानमंत्री राजीव गांधाी थे।
प्रथम कारसेवा
24 मई, 1990 को हरिद्वार में हिन्दू सम्मेलन
हुआ। सन्तों ने घोषणा की कि देवोत्थान
एकादशी (30 अक्टूबर, 1990) को मन्दिर
निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करेंगे।
यह सन्देश गांव-गांव तक पहुँचाने के लिए
01 सितम्बर, 1990 को अयाधया में अरणी मंथन
के द्वारा अग्नि प्रज्ज्वलित की गई, इसे 'रामज्योति'
कहा गया। दीपावली 18 अक्टूबर, 1990 के
पूर्व तक देश के लाखों गांवों में यह
ज्योति पहुँचा दी गई। उत्तार प्रदेश के
तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने
अहंकारपूर्ण घोषणा की कि 'अयोधया में
परिन्दा भी पर नहीं मार सकता', उन्होंने
अयोधया की ओर जाने वाली सभी सड़कें बन्द कर
दीं, अयोधया को जाने
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विराट प्रदर्शन
04 अप्रैल, 1991 को दिल्ली के वोट क्लब पर
विशाल रैली हुई। देशभर से पच्चीस लाख
रामभक्त दिल्ली पहुँचे। यह भारत के इतिहास
की विशालतम रैली कहलाई। रैली में सन्तों
की गर्जना हो रही थी तभी सूचना मिली कि
उत्तार प्रदेश में मुलायम सिंह ने
मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
समतलीकरण
उत्तारप्रदेश सरकार ने 2.77 एकड़ भूमि
तीर्थयात्रियों की सुविधाा के लिए
अधिाग्रहण की। यह भूमि ऊबड़-खाबड़ थी। जून,
1991 में उत्तार प्रदेश सरकार जब इस भूमि
का समतलीकरण करा रही थी, तब ढांचे के
दक्षिणी-पूर्वी कोने की जमीन से अनेक
पत्थर प्राप्त हुए, जिनमें शिव-पार्वती की
खंडित मूर्ति, सूर्य के समान अर्धा कमल,
मन्दिर के शिखर का आमलक, उत्कृष्ट नक्काशी
वाले पत्थर व अन्य मूर्तियाँ थी। समाज में
उत्साह छा गया। अनेकों इतिहासकार,
पुरातत्वविद् उन अवशेषों को देखने अयोध्या
पहुंच गए।
सर्वदेव अनुष्ठान व नींव ढलाई
09 जुलाई, 1992 से 60 दिवसीय सर्वदेव
अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। जन्मभूमि के ठीक
सामने शिलान्यास स्थल से भावी मंदिर की
नींव के चबूतरे की ढलाई भी प्रारंभ हुई।
यह नींव 290 फीट लम्बी, 155 फीट चौडी और
2-2 फीट मोटी एक-के-ऊपर-एक तीन परत ढलाई
करके कुल 6 फीट मोटी बननी थी। 15 दिनों तक
नींव ढलाई का काम चला। थोड़ा ही काम हुआ था
कि प्रधाानमंत्री नरसिम्हा राव ने संतों
से चार महीने का समय मांगा और नींव ढलाई
का काम बन्द करने का निवेदन किया। संतों
ने प्रधाानमंत्री की बात मान ली और वे
जन्मभूमि के नैऋत्य कोण में कुछ दूरी पर
बनने वाले शेषावतार मंदिर की नींव के
निर्माण के काम में लग गए।
पादुका पूजन
नन्दीग्राम में भरत जी ने 14 वर्ष वनवासी रूप
में रहकर अयोधया का शासन भगवान की पादुकाओं
के माधयम से चलाया था, इसी स्थान पर 26
सितम्बर, 1992 को श्रीराम पादुकाओं का
पूजन हुआ। अक्टूबर मास में देश के
गांव-गांव में इन पादुकाओं के पूजन द्वारा
जन जागरण हुआ। रामभक्तों ने मन्दिर
निर्माण का संकल्प लिया।
कारसेवा का पुन: निर्णय
दिल्ली में 30 अक्टूबर, 1992 को सन्त पुन:
इकट्ठे हुए। यह पांचवीं धार्मसंसद थी।
सन्तों ने फिर घोषणा की कि गीता जयन्ती (6
दिसम्बर, 1992) से कारसेवा पुन: प्रारम्भ
करेंगे। सन्तों के आवाह्न पर लाखों
रामभक्त अयोधया
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ढांचे से शिलालेख मिला
6 दिसम्बर, 1992 को जब ढांचा गिर रहा था तब
उसकी दीवारों से एक पत्थर प्राप्त हुआ।
विशेषज्ञों ने पढ़कर बताया कि यह शिलालेख
है, 1154 ई0 का संस्कृत में लिखा है, इसमें
20 पंक्तियाँ हैं। ऊँ नम: शिवाय से यह
शिलालेख प्रारम्भ होता है। विष्णुहरि के
स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर का इसमें वर्णन
है। अयोधया के सौन्दर्य का वर्णन है।
दशानन के मान-मर्दन करने वाले का वर्णन
है। ये समस्त पुरातात्तिवक साक्ष्य उस
स्थान पर कभी खड़े रहे भव्य एवं विशाल
मन्दिर के अस्तित्व को ही सिध्द करते हैं।
संविधाान निर्माताओं की दृष्टि में राम
भारतीयों के लिए तो राम भगवान् हैं, आदर्श
हैं, मर्यादा पुरुषोत्ताम हैं। संविधाान
निर्माताओं ने भी जब संविधाान की प्रथम
प्रति का प्रकाशन किया तब भारत की
सांस्कृतिक व ऐतिहासिक प्राचीनता को
दर्शाने के लिए संविधाान की प्रति में
तीसरे नम्बर पर प्रभु श्रीराम, माता जानकी
व लक्ष्मण जी का उस समय का चित्र छापा जब
वे लंका विजय के पश्चात पुष्पक विमान में
बैठकर अयोधया को वापस आ रहे हैं। अत: ऐसे
मर्यादा पुरुषोत्ताम प्रभु श्रीराम के
जन्मस्थान की रक्षा करना हमारा संवैधाानिक
दायित्व भी है।
अस्थायी मन्दिर का निर्माण
6 दिसम्बर, 1992 को ढांचा ढह जाने के बाद
तत्काल बीच वाले गुम्बद के स्थान पर ही
भगवान् का सिंहासन और ढांचे के नीचे
परम्परा से रखा चला आ रहा विग्रह सिंहासन
पर स्थापित कर पूजा प्रारंभ कर दी। हजाराें
भक्तों ने रात और दिन लगभग 36 घण्टे मेहनत
करके बिना औजारों के केवल हाथों से उस
स्थान के चार कोनों पर चार बल्लियाँ खड़ी
करके कपड़े लगा दिए, ईंटों की दीवार खड़ी कर
दी और बन गया मन्दिर। आज भी इसी स्थान पर
पूजा हो रही है, जिसे अब भव्य रूप देना
है। कपड़े के इसी मंदिर को डंाम ैीपजि
मंदिर कहते हैं।
न्यायालय द्वारा दर्शन की पुन: अनुमति
08 दिसम्बर 1992 अतिप्रात: सम्पूर्ण अयोधया
में कर्फ्यू लग गया। परिसर केन्द्रीय
सुरक्षा बलों के हाथ में चला गया। परन्तु
केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवान भगवान् की
पूजा करते रहे। हरिशंकर जैन नाम के एक
वकील ने उच्च न्यायालय में गुहार की, कि
भगवान् भूखे हैं। राग, भोग व पूजन की
अनुमति दी जाए। 01 जनवरी, 1993 को उच्च
न्यायालय के न्यायाधाीश न्यायमूर्ति
हरिनाथ तिलहरी ने दर्शन-पूजन की अनुमति
प्रदान की।
अधिग्रहण एवं दर्शन की पीड़ादायी
प्रशासनिक व्यवस्था
07 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने ढांचे वाले
स्थान को चारों ओर से घेरकर लगभग 67 एकड़
भूमि का अधिाग्रहण कर लिया। इस भूमि के
चारों ओर लोहे के पाईपों की ऊँची-ऊँची
दोहरी दीवारें खड़ी कर दी गईं। भगवान् तक
पहुंचने के लिए बहुत संकरा गलियारा बनाया,
दर्शन करने जानेवालों की सघन तलाशी की जाने
लगी। जूते पहनकर ही दर्शन करने पड़ते हैं।
आधाा मिनट भी ठहर नहीं सकते। वर्षा, शीत,
धाूप से बचाव के लिए कोई व्यवस्था नहीं
है। इन कठिनाइयों के कारण अतिवृध्द भक्त
दर्शन करने जा ही नहीं सकते। अपनी इच्छा
के अनुसार प्रसाद नहीं ले जा सकते। जो
प्रसाद शासन ने स्वीकार किया है वही लेकर
अन्दर जाना पड़ता है। दर्शन का समय ऐसा है
मानो सरकारी दफ्तर हो। दर्शन की यह अवस्था
अत्यन्त पीड़ादायी है। इस अवस्था में
परिवर्तन लाना है।
हस्ताक्षर अभियान
वर्ष 1993 में दस करोड़ नागरिकों के हस्ताक्षरों
से युक्त एक ज्ञापन तत्कालीन महामहिम
राष्ट्रपति महोदय को सौंपा गया था, जिसमें
एक पंक्ति का संकल्प था कि ''आज जिस स्थान
पर रामलला विराजमान है, वह स्थान ही
श्रीराम जन्मभूमि है, हमारी आस्था का
प्रतीक है और वहाँ एक भव्य मन्दिर का
निर्माण करेंगे।''
भावी मन्दिर की तैयारी
श्रीराम जन्मभूमि पर बनने वाला मन्दिर तो
केवल पत्थरों से बनेगा। मन्दिर दो मंजिला
होगा। भूतल पर रामलला और प्रथम तल पर राम
दरबार होगा। सिंहद्वार, नृत्य मण्डप, रंग
मण्डप, गर्भगृह और परिक्रमा मन्दिर के अंग
हैं। 270 फीट लम्बा, 135 फीट चौड़ा तथा 125
फीट ऊँचा शिखर है। 10 फीट चौड़ा परिक्रमा
मार्ग है। 106 खम्भे हैं। 6 फीट मोटी
पत्थरों की दीवारें लगेंगी। दरवाजों की
चौखटें सफेद संगमरमर पत्थर की होंगी।
1993 से मन्दिर निर्माण की तैयारी तेज कर दी
गई। मन्दिर में लगने वाले पत्थरों की
नक्काशी के लिए अयोधया तथा राजस्थान के
पिण्डवाड़ा व मकराना में कार्यशालाएं
प्रारम्भ हुईं। अब तक मन्दिर के फर्श पर
लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर, भूतल पर लगने
वाले 16.6 फीट के 108 खम्भे, रंग मण्डप
एवं गर्भगृह की दीवारों तथा भूतल पर लगने
वाली संगमरमर की चौखटों का निर्माण पूरा
किया जा चुका है। खम्भों के ऊपर रखे जाने
वाले पत्थर के 185 बीमों में 150 बीम
तैयार हैं। मन्दिर में लगने वाले सम्पूर्ण
पत्थरों का 60 प्रतिशत से अधिाक कार्य
पूर्ण हो चुका है।
हम समझ लें कि श्रीराम जन्मभूमि सम्पत्तिा
नहीं है। हिन्दुओं के लिए श्रीराम
जन्मभूमि आस्था है। भगवान की जन्मभूमि
स्वयं में देवता है, तीर्थ है व धााम है।
रामभक्त इस धारती को मत्था टेकते हैं। यह
विवाद सम्पत्तिा का विवाद ही नहीं है। इस
कारण यह अदालत का विषय नहीं है। अदालत
आस्थाओं पर फैसले नहीं देती।
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श्रीराम जन्मभूमि से सम्बन्धित मुकदमों
का विवरण
23 दिसम्बर 1949 को ब्रह्ममुहूर्त में भगवान्
श्रीरामलला के प्राकटय के पश्चात् श्रीराम
भक्तों ने अदालत में अपने मूलभूत
अधिाकारों को लेकर वाद दायर किए।
प्रथम वाद श्री गोपाल सिंह विशारद द्वारा
सिविल जज फैजाबाद के यहां जनवरी 1950 में
दायर किया गया। वाद में अदालत से
प्रार्थना की गई कि वादी को भगवान् के
दर्शन, पूजन का अधिाकार सुरक्षित रखा जाए।
इसमें कोई बाधाा अथवा विवाद उत्पन्न न करे
साथ ही ऐसी निषेधााज्ञा जारी की जाए जिससे
भगवान् को कोई उनके वर्तमान स्थान से हटा
न सके।
द्वितीय वाद परमहंस पूज्य रामचन्द्र दास जी
महाराज द्वारा भी वर्ष 1950 में ही लगभग
उपरोक्त भावना के अनुरूप ही दायर किया
गया। यह वाद वर्ष 1990 में परमहंस
रामचन्द्र दास जी महाराज ने वापस ले लिया
था।
श्री गोपाल सिंह विशारद के वाद में निचली
अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने श्री गोपाल सिंह
विशारद के पक्ष में अन्तरिम आदेश दे दिए
तथा व्यवस्था के लिए एक रिसीवर नियुक्त कर
दिया। इस अन्तरिम आदेश की पुष्टि अप्रैल
1955 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा
कर दी गयी।
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चतुर्थ वाद सुन्नी सेण्ट्रल वक्फ बोर्ड
द्वारा दिसम्बर 1961 में दायर किया गया।
इस वाद में मुस्लिमों ने भगवान् के
प्राकटय स्थल को सार्वजनिक मस्जिद घोषित
करने, पूजा सामग्री हटाने तथा परिसर का
कब्जा सुन्नी वक्फ को सौंपे जाने की
प्रार्थना की साथ ही साथ जन्मभूमि के
चारों ओर के भू-भाग को कब्रिस्तान घोषित
करने की मांग की। परन्तु वर्ष 1996 में
जन्मभूमि के चारों ओर की भूमि को
कब्रिस्तान घोषित करने की अपनी प्रार्थना
वापस ले ली।
पंचम वाद जुलाई 1989 में इलाहाबाद उच्च
न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाध्ीश श्री
देवकीनन्दन अग्रवाल (अब स्वर्गीय) की ओर
से स्वयं रामलला विराजमान तथा राम
जन्मस्थान को वादी बनाते हुए अदालत में
दायर किया गया।
सभी मुकदमें एक ही स्थान के लिए है अत: सबको
एक साथ जोड़ने और एक साथ सुनवाई का आदेश हो
गया।
विषय की नाजुकता को समझते हुए सभी मुकदमें
जिला अदालत से उठाकर उच्च न्यायालय की
लखनऊ पीठ को दे दिए गए। दो हिन्दू और एक
मुस्लिम न्यायाधाीश की पूर्ण पीठ बनी।
महामहिम राष्ट्रपति का प्रश्न व उत्खनन
से प्राप्त अवशेष
ढांचा गिर जाने के बाद भारत सरकार द्वारा
अधिग्रहीत की गई 67 एकड़ भूमि के अधिग्रहण
के विरुध्द सर्वोच्च न्यायालय में
मुस्लिमों सहित अनेक प्रभावित लोगों ने
याचिका दायर की। साथ ही साथ भारत के
तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने
सर्वोच्च न्यायालय को संविधाान की धाारा
143 के अन्तर्गत अपना एक प्रश्न प्रस्तुत
किया और उसका उत्तार चाहा। प्रश्न था कि
''क्या ढांचे वाले स्थान पर 1528 ईसवी के
पहले कोई हिन्दू मंदिर था?'' सर्वोच्च
न्यायालय ने अधिग्रहण से संबंधित याचिकाओं
तथा महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न
पर लम्बी सुनवाई की। सुनवाई के दौरान
सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार के
सॉलीसीटर जनरल से पूछा कि राष्ट्रपति
महोदय के प्रश्न का मन्तव्य और अधिक
स्पष्ट कीजिए। तब सॉलीसीटर जनरल श्री
दीपांकर गुप्ता ने भारत सरकार की ओर से
दिनांक 14 सितम्बर, 1994 को सर्वोच्च
न्यायालय में लिखित रूप से सरकार की नीति
स्पष्ट करते हुए कहा कि यदि राष्ट्रपति
महोदय के प्रश्न का उत्तर सकारात्मक आता
है अर्थात् ढांचे वाले स्थान पर 1528
ईस्वी के पहले एक हिन्दू मंदिर/भवन था तो
सरकार हिन्दू भावनाओं के अनुरूप कार्य
करेगी और यदि उत्तर नकारात्मक आता है तो
मुस्लिम भावनाओं के अनुरूप कार्य करेगी।
अक्टूबर 1994 में न्यायालय ने अपना
फैसला दिया और राष्ट्रपति महोदय का प्रश्न
अनावश्यक बताते हुए सम्मानपूर्वक
अनुत्तरित राष्ट्रपति महोदय को वापस कर
दिया। विवादित 12000 वर्गफुट भूमि के
अधिग्रहण को रद्द कर दिया, शेष भूमि के
अधिग्रहण को स्वीकार कर लिया और कहा कि
महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का
उत्तर तथा विवादित भूखण्ड के स्वामित्व का
फैसला न्यायिक प्रक्रिया से उच्च न्यायालय
द्वारा किया जायेगा। इस प्रकार सभी वादों
का निपटारा करने तथा राष्ट्रपति महोदय के
प्रश्न का उत्तर खोजने का दायित्व
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय
खण्डपीठ पर आ गया। (सर्वोच्च न्यायालय का
यह निर्णय 24 अक्टूबर, 1994 को घोषित हुआ
और इस्माइल फारूखी बनाम भारत सरकार के नाम
से प्रसिध्द है जो सर्वोच्च न्यायालय
द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है।)
यदि 1528 ई0 में मन्दिर तोड़ा गया तो उसके
अवशेष जमीन में जरूर दबे होंगे, यह खोजने
के लिए उच्च न्यायालय ने स्वयं प्रेरणा से
2002 ई. में
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सभी तथ्य अदालत के रिकार्ड पर मौजूद हैं।
उच्च न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया पूर्ण
हो चुकी है। अनुमान है कि सितम्बर अन्त तक
फैसला आएगा। फैसला क्या होगा यह नहीं कहा
जा सकता। फैसला जो भी हो किसी एक पक्ष में
असंतोष अवश्य फैलेगा। वह सर्वोच्च
न्यायालय में जायेगा। वहां क्या होगा ?
वहां कब तक मामला लटकेगा ? कहा नहीं जा
सकता। अदालतों के निर्णयों के क्रियान्वयन
का नैतिक बल सरकार के पास होगा या नहीं,
यह कहना बहुत कठिन है। लेकिन यह तय है कि
जागरुक और स्वाभिमानी समाज अपने सम्मान की
रक्षा अवश्य करेगा।
सही मार्ग तो यह है कि सोमनाथ मंदिर निर्माण
की तर्ज पर संसद कानून बनाए और श्रीराम
जन्मभूमि हिन्दू समाज को सौंप दे। इसी
मार्ग से 1528 के अपमान का परिमार्जन माना
जाएगा।
-----------------------------
श्रीराम जन्मभूमि का हल खोजने हेतु किए
गए वार्तालाप का इतिहास
जब श्री चन्द्रशेखर सिंह जी प्रधाानमंत्री
बने तब उन्होंने आपसी वार्तालाप का सुझाव
दिया जो सभी ने स्वीकार किया। श्रीराम
जन्मभूमि को प्राप्त करके राम मन्दिर के
पुनर्निर्माण का संघर्ष शताब्दियों से
चलता आ रहा है। अनेकानेक पीढ़ियों ने इस
संघर्ष में अपना योगदान किया है। इस स्थान
को प्राप्त करने के लिए 76 बार लड़ाईयों का
वर्णन इतिहास में दर्ज है। देश के अनेक
बुध्दिजीवियों का यह मत है कि इस विषय का
समाधाान आपसी वार्तालाप अथवा न्यायिक
प्रक्रिया द्वारा हो। इसी कारण विश्व
हिन्दू परिषद ने वार्तालाप के सभी माधयमों
द्वारा यह प्रयास किया कि भारत के मुस्लिम
नेता हिन्दू समाज की आस्थाओं को समझें व
आदर करें। अनुभव यह आया कि मुस्लिम
नेतृत्व स्वयं अपनी ओर से, सदियों पुराने
इस संघर्ष को समाप्त करके परस्पर विश्वास
और सद्भाव का नया युग प्रारम्भ करने के
लिए किसी प्रकार की पहल नहीं करते।
द्विपक्षीय वार्ता में यह बात स्पष्ट रूप
से सामने आई। वार्तालाप का विवरण निम्न
प्रकार है :-
1 दिसम्बर, 1990 को अखिल भारतीय बाबरी मस्जिद
एक्शन कमेटी के सदस्यों के साथ विश्व
हिन्दू परिषद के प्रतिनिधिायों ने बिना
किसी पूर्वाग्रह के वार्ता प्रारम्भ की।
परिषद की ओर से श्री विष्णुहरि डालमिया,
श्री बद्रीप्रसाद तोषनीवाल, श्री
श्रीशचन्द्र दीक्षित, श्री मोरोपंत
पिंगले, श्री कौशलकिशोर, श्री भानुप्रताप
शुक्ल, श्री आचार्य गिरिराज किशोर व श्री
सूर्यकृष्ण उपस्थित रहे।
4 दिसम्बर, 1990 को दूसरी बैठक में तत्कालीन
गृह राज्यमंत्री, उत्तारप्रदेश,
महाराष्ट्र व राजस्थान के तत्कालीन
मुख्यमंत्री क्रमश: श्री मुलायम सिंह
यादव, श्री शरद पवार व श्री भैरोंसिंह
शेखावत भी उपस्थित रहे। इस बैठक में बाबरी
मस्जिद एक्शन कमेटी के श्री जफरयाब जिलानी
ने दावा किया कि :-
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2. ऐसा कोई भी पुरातात्विक अथवा ऐतिहासिक
साक्ष्य उपलब्धा नहीं हैं जिससे यह ज्ञात
हो कि मस्जिद निर्माण के पूर्व इसी स्थल
पर खड़े किसी मंदिर को तोड़ा गया था।
उन्होंने यह भी कहा कि विश्व हिन्दू परिषद
का यह आन्दोलन एकदम नया है।
3. बैठक की कार्रवाई में यह दर्ज है कि कई
मुस्लिम नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि
बाबर कभी अयोधया नहीं आया, फलत: उसके
द्वारा मंदिर तोड़े जाने का प्रश्न ही नहीं
उठता।
श्री मोरोपंत पिंगले ने सुझाव दिया था कि
अगली बैठक में दोनों पक्षों की ओर से
तीन-तीन चार-चार विशेषज्ञों को सम्मिलित
किया जाए वे ही अपने पक्ष के प्रमाणिक
साक्ष्य प्रस्तुत करें।
राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री भैरोंसिंह
शेखावत ने सुझाव दिया था कि दोनों पक्षों
के विशेषज्ञ इन प्रमाणों का परस्पर
आदान-प्रदान करें और सत्यापन करें। इस पर
श्री जिलानी साहब ने कहा कि पहले समिति के
सदस्य आपस में साक्ष्य सत्यापन कर लें तब
विशेषज्ञों का सहयोग लें।
श्री पिंगले जी ने सुझाव दिया कि इस विवाद के
सौहार्दपूर्ण समाधाान के लिए एक समयसीमा
निधर्ाारित कर ली जाए। इस पर निर्णय हुआ
कि :-
1. दोनों पक्ष 22 दिसम्बर, 1990 तक अपने
साक्ष्य गृह राज्यमंत्री को उपलब्धा
करायें।
2. मंत्री महोदय साक्ष्यों की प्रतिलिपियां
सभी संबंधिात व्यक्तियों को 25 दिसम्बर,
1990 तक उपलब्धा करायें।
3. इन साक्ष्यों के सत्यापन के पश्चात् दोनों
पक्ष पुन: 10 जनवरी, 1991 को प्रात: 10.00
बजे मिलें।
द्विपक्षीय वार्ता का एक औपचारिक दस्तावेज
गृह राज्य मंत्रालय के कार्यालय में तैयार
हुआ। एक-दूसरे के साक्ष्यों का
प्रत्युत्तर 06 जनवरी, 1991 तक देना था।
विश्व हिन्दू परिषद ने बाबरी मस्जिद एक्शन
कमेटी के दावों को निरस्त करते हुए अपना
प्रतिउत्तार दिया। जबकि बाबरी कमेटी की ओर
से केवल मात्र अपने पक्ष को और अधिाक
प्रमाणित करने के लिए कुछ अतिरिक्त
साक्ष्यों की फोटोप्रतियां दी गईं। कोई भी
प्रतिउत्तार नहीं दिया। बाबरी कमेटी की ओर
से प्रतिउत्तार के अभाव में सरकार के लिए
यह कठिन हो गया कि सहमति और असहमति के
मुद्दे कौन-कौन से हैं?
10 जनवरी, 1991 को गुजरात भवन में बैठक हुई।
अन्य प्रतिनिधिायों के अतिरिक्त विश्व
हिन्दू परिषद की ओर से विशेषज्ञ रूप में
प्रो. बी.आर ग्रोवर, प्रो.
देवेन्द्रस्वरूप अग्रवाल व डॉ. एस.पी.
गुप्ता सम्मिलित हुए। यह तय किया गया कि
प्रस्तुत दस्तावेजों को ऐतिहासिक,
पुरातात्विक, राजस्व व विधिा शीर्षक के
अन्तर्गत वर्गीकरण कर लिया जाए। यह भी तय
हुआ कि दोनों पक्ष अपने विशेषज्ञों के नाम
देंगे जो संबंधिात दस्तावेजों का अधययन
करके 24 व 25 जनवरी, 1991 को मिलेंगे और
अपनी टिप्पणियों 05 फरवरी, 1991 तक दे
देंगे। तत्पश्चात् दोनों पक्ष इन
विशेषज्ञों की रिपोर्ट पर फिर से विचार
करेंगे। बाबरी मस्जिद कमेटी ने अचानक
पैंतरा बदलना शुरू कर दिया। कमेटी ने अपने
विशेषज्ञों के नाम नहीं दिए।
18 जनवरी तक उन्होंने जो नाम दिए उसमें वे
निरंतर परिवर्तन करते रहे। 24 जनवरी, 1991
को जो विशेषज्ञ आए उनमें चार तो कमेटी की
कार्यकारिणी के पदाधिाकारी थे व डॉ.
आर.एस. शर्मा, डॉ. डी.एन. झा, डॉ. सूरजभान
व डॉ.
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बैठक प्रारंभ होते ही बाबरी कमेटी के
विशेषज्ञों ने कहा कि हम न तो कभी अयोधया
गए और न ही हमने साक्ष्यों का अधययन किया
है। हमें कम से कम छ: सप्ताह का समय
चाहिए। यह घटना 24 जनवरी, 1991 की है।
25 जनवरी को बैठक में कमेटी के विशेषज्ञ आए
ही नहीं। जबकि परिषद के प्रतिनिधिा और
विशेषज्ञ दो घण्टे तक उनकी प्रतीक्षा करते
रहे। इसके पश्चात् की बैठक में भी ऐसा ही
हुआ अन्तत: वार्तालाप बन्द हो गयी। यह
विचारणीय है कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी
ने मुख्य मुद्दों का सामना करने की बजाए
बैठक के बहिष्कार का रास्ता क्यों चुना?
इसलिए आज वार्तालाप की बात करना कितना सार्थक
होगा यह विचारणीय विषय है।
-------------------------
गुलामी के कलंक को मिटाने के लिए 1947 के बाद भारत सरकार द्वारा किए गए
कार्य
1. सोमनाथ मंदिर का जीर्णोंध्दार, सरदार
वल्लभभाई पटेल (प्रथम गृहमंत्री-भारत
सरकार), डॉ. के.एम. मुंशी, श्री काकासाहेब
गाडगिल के प्रयत्नों से तथा महात्मा
गांधाी जी की सहमति व केन्द्रीय
मंत्रिमण्डल की स्वीकृति से 1950 में हुआ।
2. दिल्ली में इण्डिया गेट के अन्दर ब्रिटिश
राज्यसत्ताा के प्रतिनिधिा किन्हीं जार्ज
की खड़ी मूर्ति हटाई गई। सुना जाता है कि
किसी आजादी के दीवाने ने इस मूर्ति की नाक
तोड़ दी थी। भारत सरकार ने उसे हटवा दिया।
3. दिल्ली का चांदनी चौक, अयोधया का तुलसी
उद्यान व देश में जहां कहीं विक्टोरिया की
मूर्तियां थीं वे सब हटाईं।
4. भारत में जहां-जहां पार्कों के नाम कंपनी
गार्डन थे वे सब बदल दिए गए और कहीं-कहीं
उनका नाम गांधाी पार्क हो गया।
5. अमृतसर से कलकत्ता तक की सड़क जी.टीरोड़
कहलाती थी उसका नाम बदला गया। बड़े-बड़े
शहरों के माल रोड जहां केवल अंग्रेज ही
घूमते थे उन सड़कों का नाम एम.जी. रोड कर
दिया गया।
6. दिल्ली में मिण्टो ब्रिज को आज शिवाजी पुल
के रूप में पहचाना जाता है।
7. दिल्ली में स्थित इरविन हॉस्पिटल तथा
बिल्ंगिटन हॉस्पिटल क्रमश: जयप्रकाश
नारायण अस्पताल व डॉराम मनोहर लोहिया
अस्पताल कहलाए जाते हैं।
8. कलकत्ता, बाम्बे, मद्रास के नाम बदलकर
कोलकाता, मुम्बई व चेन्नई कर दिए गए।
श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करके उस पर
खड़े कलंक के प्रतीक मस्जिद जैसे दिखनेवाले
ढांचे को हटाकर भारत के लिए महापुरुष,
मर्यादा पुरुषोत्ताम, रामराज्य के
संस्थापक, भगवान् विष्णु के अवतार,
सूर्यवंशी प्रभु श्रीराम का मन्दिर
पुनर्निर्माण का यह जनान्दोलन उपर्युक्त
श्रृंखला का ही एक भाग है।
हम विचारें यदि अंग्रेजों के प्रतीक हटाए जा
सकते हैं क्योंकि उन्होंने इस देश को
गुलाम बनाए रखा और उस गुलामी से मुक्त
होने के लिए 1947 की पीढ़ी ने संघर्ष किया
तो अंग्रेजों के पूर्व भारत पर आक्रमण
करनेवाले विदेशियों के चिन्हों को क्यों
नहीं हटाया जा सकता? क्या केवल इसलिए कि
अंग्रेजों से संघर्ष करने वाली पीढ़ी ने
मुस्लिम आक्रमणकारियों से संघर्ष नहीं
किया था।
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गुलामी के कलंक को मिटाने के भारत के
बाहर के उदाहरण
1. प्रसिध्द इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्बी
द्वारा दिया गया उदाहरण
इस शताब्दी के महान् इतिहासकार अर्नाल्ड
टायन्बी ने दिल्ली में आजाद मेमोरियल
लेक्चर देते समय जो विचार व्यक्त किए थे,
वे उल्लेखनीय हैं। यहां उसका मुख्य अंश
उध्दाृत किया जा रहा है :-
जब मैं बोल रहा हूं तो हमारी मन की आंखों के
सामने कुछ स्पष्ट दृश्य-बिम्ब उमड़ रहे
हैं। इनमें से एक मानसिक चित्र पोलैण्ड के
वार्सा नगर के मुख्य चौक का 1620 के दशक
के अन्तिम दिनों का है। वार्सा पर प्रथम
रूसी अधिाकार के समय (1614-15) रुसियों ने
इस नगर के जो किसी समय स्वतंत्रा रोमन
कैथोलिक देश पोलैण्ड की राजधाानी था, एक
ईस्टर्न आर्थोडॉक्स क्रिश्चियन कैथेड्रल
बनवाया था। रुसियों ने पोलिश लोगों को
निरंतर यह दृश्यमान अहसास दिलाने के लिए
यह कार्य किया था कि अब उनके स्वामी रुसी
लोग हैं। 1618 में पोलैण्ड की स्वतंत्रता
की पुनर्स्थापना के बाद पोलिश लोगों ने इस
कैथड्रल को गिरा दिया था। यह विधवंस कार्य
हमारे वहां पहुंचने के एक दिन पूर्व ही
किया गया था। इस कारण मैं पोलैण्ड की
सरकार को इस रुसी चर्च को गिरा देने के
कारण लांछित नहीं करता। जिस प्रयोजन के
लिए रुसियों ने इसका निर्माण किया था वह
धाार्मिक न होकर राजनीतिक था और यह
उद्देश्य भी जानबूझकर आहत करने वाला था।
दूसरी ओर, भारत सरकार की इसलिए प्रशंसा
करता हूं कि उन्होंने औरंगजेब की मस्जिदों
को नहीं ढहाया। मैं विशेष रुप से उन दो के
विषय में सोच रहा हूं जिनमें से एक बनारस
के घाटों पर बनी है, दूसरी मथुरा में
कृष्ण के टीलों पर। इन तीनों मस्जिदों को
बनाने में औरंगजेब का प्रयोजन जानबूझकर
आहत करने वाला वही राजनीतिक प्रयोजन था
जिसने रुसियों को वार्सा के केन्द्र में
आर्थोडॉक्स कैथड्रल बनाने के लिए प्रेरित
किया था। ये तीनों मस्जिदें यह घोषित करने
के लिए बनवाई गई थीं कि इस्लामी सरकार
सर्वोच्च है, यहां तक कि हिन्दुओं के
पवित्रतम स्थानों के लिए भी है।
2. श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी द्वारा दिया गया
रूस का उदाहरण
''सन् 1968 के जून-जुलाई में हमारा
पार्लियामेन्ट्री प्रतिनिधिा मण्डल उस समय
के लोकसभा के सभापति मान्यवर संजीव जी
रेड्डी के नेतृत्व में रूस गया था। उस दौरे
में रसियन लोग हमें पेट्रोग्रेड में स्थित
जार का विन्टर पैलेस दिखाने के लिए ले गए
थे। कम्युनिस्टों के हाथ में सत्ताा आने
के पश्चात् उन्होंने इस विन्टर पैलेस को
एक पर्यटक केन्द्र बनाया था। पैलेस का
पूर्ण स्वरूप पुराना होते हुए भी बहुत
प्रभावशाली था। उसमें भ्रमण करते समय हम
लोगों के धयान में एक विसंगत बात आई। पूरा
पैलेस पुराना था, किन्तु कुछ मूर्तियाँ
नई-नई प्रतीत होती थी। उनके विषय में हमने
पूछताछ की।
हमें बताया गया कि वे मूर्तियाँ ग्रीक
देवी-देवताओं की हैं। जैसे जूपीटर, वीनस
आदि और दूसरे महायुध्द के पश्चात् रसियन
कम्युनिस्ट सरकार ने उनका पुनर्निर्माण
क्यों किया? हम में से एक ने पूछा कि आप
तो धार्म और भगवान के खिलाफ हैं, नास्तिक
हैं। फिर आपकी सरकार ने देवी-देवताओं की
मूर्तियों का पुनर्निर्माण क्यों किया?
उन्होंने बताया कि हम घोर नास्तिक हैं।
हमारी श्रध्दा है कि-भगवान यह एक धोखा है,
किन्तु मूर्तियों के पुनर्निर्माण का
सम्बन्धा हमारी आस्तिकता-नास्तिकता से नहीं
है। दूसरे महायुध्द में हिटलर की सेना
लेनिनग्राड तक पहुँच गई। वहाँ हम लोगों ने
बड़ा प्रतिकार किया। लेनिनग्राड के मैदान
में हमारे पास लाखों वीरों के कफन आपको
दिखेंगे। इसके कारण जर्मन लोग चिढ़ गए और
हमारा राष्ट्रीय अपमान करने के उद्देश्य
से उन्होंने प्रतिरोधा की भावना से यहाँ
की देवी-देवताओं की पुरानी मूर्तियाँ तोड़ी।
इसके पीछे भाव यही था कि रूस
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