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अपने धरोहर की जिन्हें फिक्र थी
लखनऊ
संगीत-शिक्षा-परम्परा का सूत्रधार : बली
परिवार
कृष्णमोहन मिश्र
Publised on :
31 March 2012, Time: 10:23
अवध
के नवाब वाजिद अली शाह
1847
से
1856
तक अवध के शासक रहे। उनके कार्यकाल
में ही "ठुमरी" एक शैली के रूप में विकसित
हुई थी। उन्हीं के प्रयासों से
कथक नृत्य को एक अलग आयाम मिला और ठुमरी,
कथक नृत्य का अभिन्न अंग बनी। नवाब ने
'कैसर'
उपनाम से अनेक गद्य और पद्य की स्वयं
रचनाएँ भी की। इसके
अलावा
‘अख्तर'
उपनाम से सादरा,
ख़याल,
ग़ज़ल और ठुमरियों की भी रचना की थी।
अंग्रेजों की कुटिल नीतियों के कारण
षड्यंत्र कर
7फरवरी,
1856
को
अवध के शासन से नवाब को सत्ता से बेदखल कर
दिया और बंगाल के मटियाबुर्ज नामक स्थान
पर नज़रबन्द कर दिया। लखनऊ की
संगीत-परम्परा पर यह गहरा आघात था।
संरक्षक के अभाव में यहाँ का संगीत बिखर
गया। रही-सही कसर 1857 के असफल प्रथम
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम ने पूरी कर
दी।
1857
से लेकर लगभग छह दशक तक अवध की संगीत
परम्परा में अपेक्षित विकास न हो सका। इसी
अवधि में 10अगस्त,
1860
को तत्कालीन बम्बई के बालकेश्वर नामक
स्थान पर भारतीय संगीत के एक उद्धारक का
जन्म हुआ,
जिसे आगे चलकर पण्डित विष्णु नारायण
भातखण्डे नाम से जाना गया। विभिन्न घरानों
में बिखरे भारतीय संगीत का संकलन,
उनका अभिलेखन,
ग्रन्थों की रचना,
संगीत सम्मेलनों का आयोजन और संगीत-शिक्षण
की व्यवस्था करते हुए भातखण्डे जी का 1924
में लखनऊ आगमन हुआ। यहाँ बली परिवार के
माध्यम से उत्तर भारत का महत्त्वपूर्ण
सांगीतिक केन्द्र स्थापित करने में सफलता
मिली।
जुलाई 1926 में तत्कालीन संयुक्त प्रान्त
के अन्तर्गत दरियाबाद (बाराबंकी) स्टेट के
तेरहवें तालुकेदार डॉ. राय राजेश्वर बली,
उनके चाचा राय उमानाथ बली,
पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे,
राजा नवाब अली और तत्कालीन संयुक्त
प्रान्त के गवर्नर सर विलियम मैरिस के
प्रयासों से लखनऊ के कैसरबाग स्थित
तोपवाली कोठी में संगीत की कक्षाएँ शुरू
हुईं। आरम्भ में इस संगीत विद्यालय का नाम
‘ऑल
इण्डिया कॉलेज ऑफ हिन्दुस्तानी म्यूजिक’
रखा गया था। लगभग दो मास के अन्तराल के
बाद राय उमानाथ बली के प्रयासों से
16सितम्बर,1926
को लखनऊ के कैसरबाग
बारादरी में एक संगीत सभा का आयोजन किया
गया और गवर्नर सर विलियम मैरिस की
उपस्थिति में इसका विधिवत नामकरण
‘मैरिस
कॉलेज ऑफ हिन्दुस्तानी म्यूजिक’
किया गया। सितम्बर 1928 में यह
महाविद्यालय के स्वरूप में "ओल्ड कौंसिल
चेम्बर" में स्थानान्तरित हुआ।
डॉ. राय राजेश्वर बली (1889-1944)
दरियाबाद के तालुकेदार थे और 1924 से 1928
के बीच तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के
शिक्षामंत्री थे। उन्होने ही मैरिस कालेज
का संविधान भी बनवा कर पारित कराया था।
लखनऊ में संगीत विद्यालय स्थापित करने का
बली परिवार का स्वप्न साकार तो हुआ था,
1926 में,
किन्तु राय उमानाथ बली ने इसके लिए 1917
से ही प्रयास आरम्भ कर दिया था। उन दिनों
भातखण्डे जी देश में भारतीय संगीत के
प्रचार-प्रसार के लिए भ्रमण कर रहे थे।
उन्होने मार्च 1916 में बड़ौदा-नरेश के
सहयोग से अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन का
आयोजन किया और एक संगीतालय की स्थापना भी
की। राय उमानाथ बली इससे प्रेरित हुए और
अगले वर्ष से ही लखनऊ में संगीत सम्मेलन
और संगीत विद्यालय स्थापित करने के प्रयास
में लग गए। 1918 में भातखण्डे जी ने
रामपुर के नवाब अली साहब की अध्यक्षता में
दिल्ली में दूसरा अखिल भारतीय संगीत
सम्मेलन आयोजित कराया था। राय उमानाथ बली
इस सम्मेलन में शामिल हुए और लखनऊ में
संगीत सम्मेलन और संगीत विद्यालय की
स्थापना का प्रस्ताव सम्मेलन के मंच से
दिया। नवाब रामपुर ने इस प्रस्ताव का
समर्थन भी किया,
किन्तु भातखण्डे जी ने दिल्ली में
‘एकेडमी
ऑफ हिन्दुस्तानी म्यूजिक’
की स्थापना में अपनी व्यस्तता के कारण इस
प्रस्ताव पर ध्यान न दे सके। नवम्बर 1919
में तीसरा संगीत सम्मेलन बनारस में आयोजित
हुआ था। राय उमानाथ बली इस सम्मेलन में भी
सम्मिलित हुए और अपना पिछला प्रस्ताव
दुहराया।
बनारस सम्मेलन से लौट कर उन्होने अपने
भतीजे और तत्कालीन शिक्षामंत्री डॉ. राय
राजेश्वर बली के सहयोग और भातखण्डे जी के
मार्गदर्शन से भव्य संगीत सम्मेलन और
संगीत विद्यालय-स्थापना की तैयारियों में
संलग्न हो गए। अन्ततः दिसम्बर 1924 में
लखनऊ के कैसरबाग,
बारादरी में भव्य ढंग से अखिल भारतीय
संगीत सम्मेलन आयोजित हुआ। बली परिवार का
श्रम सार्थक हुआ और सम्मेलन के मंच से
संगीत विद्यालय की स्थापना हेतु सहर्ष
सहमति दी गई बारादरी के निकट ही तोपवाली
कोठी में जुलाई 1926 से संगीत-कक्षाएँ
आरम्भ हुईं। यह महत्त्वाकांक्षी योजना राय
उमानाथ बली,
उनके भतीजे डॉ. राय राजेश्वर बली,
राजा नवाब अली के अथक प्रयत्नो,
पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे के
मार्गदर्शन तथा तत्कालीन संयुक्त प्रान्त
के गवर्नर सर विलियम मैरिस के सहयोग से
कार्यान्वित हुआ था। बली परिवार का यह
स्वप्न आज पुष्पित-पल्लवित होकर एक समृद्ध
कला परिसर के रूप में पूरे उत्तर भारत का
सांस्कृतिक केन्द्र बना हुआ है।
'वन्देमातरम'
गीत का एक नवीन प्रयोग
कृष्णमोहन मिश्र
Pubilsed on Dated:
2011-08-15 , Tme: 12:45 ist Upload on Dated
: 2011-08-15 , Tme: 12:45 ist
मध्य प्रदेश संस्कृति
विभाग एवं उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत कला अकादमी के
संयुक्त प्रयासों से प्रतिवर्ष चन्देल राजाओं की
संस्कृति-समृद्ध भूमि- खजुराहो में महत्वाकांक्षी- 'खजुराहो
नृत्य समारोह' आयोजित होता है। इस वर्ष के समारोह की तीसरी
संध्या में 'भरतनाट्यम' नृत्य शैली की विदुषी नृत्यांगना
डाक्टर ज्योत्सना जगन्नाथन ने अपने नर्तन को 'भारतमाता की
अर्चना' से विराम दिया। उन्होंने बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
की कालजयी कृति -'वन्देमातरम ....' का चयन किया। इस गीत
में भारतमाता के जिस स्निग्ध स्वरुप का वर्णन कवि ने शब्दों
के माध्यम से किया है, विदुषी नृत्यांगना ने उसी स्वरुप को
अपनी भंगिमाओं, हस्तकों, पद्संचालन आदि के माध्यम से मंच
पर साक्षात् साकार कर दिया। आमतौर पर शास्त्रीय नर्तक/नृत्यांगना,
नृत्य का प्रारम्भ 'मंगलाचरण' से तथा समापन द्रुत या
अतिद्रुत लय की किसी नृत्य-संरचना से करते हैं। सुश्री
ज्योत्सना ने 'वन्देमातरम' से अपने नर्तन को विराम देकर एक
सुखद प्रयोग किया है। दक्षिण भारतीय संगीत संरचना में
निबद्ध 'वन्देमातरम' सुन कर इस अलौकिक गीत के कुछ पुराने
पृष्ठ अनायास खुल गए। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इस
गीत की भूमिका पर अनगिनत पृष्ठ लिखे जा चुके हैं और लिखे
जाते रहेंगे। 1896 में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर
ए.आर. रहमान तक सैकड़ों गायकों ने 'वन्देमातरम' गीत को
अपनी-अपनी धुनों और स्वरों में गाया है। इस विषय पर
विस्तार से चर्चा फिर किसी विशेष अवसर पर होगी। आज इस गीत
के बहुप्रचलित रूप पर कुछ चर्चा कर ली जाए।
15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से सुप्रसिद्ध
शास्त्रीय गायक पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का राग- देश में
निबद्ध 'वन्देमातरम' के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था। आजादी
की सुहानी सुबह में देशवासियों के कानों में राष्ट्रभक्ति
का मंत्र फूँकने में 'वन्देमातरम' की भूमिका अविस्मरणीय
थी। ओंकारनाथ जी ने पूरा गीत स्टूडियो में खड़े होकर गाया
था; अर्थात उन्होंने इसे राष्ट्रगीत के तौर पर पूरा सम्मान
दिया था। इस प्रसारण का पूरा श्रेय सरदार बल्लभभाई पटेल को
जाता है।24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने निर्णय लिया कि
स्वतंत्रता संग्राम में 'वन्देमातरम' गीत की उल्लेखनीय
भूमिका को देखते हुए इस गीत के प्रथम दो अन्तरों को 'जन गण
मन..' के समकक्ष मान्यता दी जाय। डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद
ने संविधान सभा का यह निर्णय सुनाया। "वन्देमातरम' को
राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्वपूर्ण
राष्ट्रीय अवसरों पर 'वन्देमातरम' गीत को स्थान मिला। आज
भी 'आकाशवाणी' के सभी केन्द्रों का प्रसारण 'वन्देमातरम'
गान से ही आरम्भ होता है। 1952 में बंकिमचन्द्र
चट्टोपाध्याय के उपन्यास- 'आनन्दमठ' पर इसी नाम से एक
फिल्म बनी थी, जिसमें 'वन्देमातरम' गीत भी शामिल था। हेमेन
गुप्ता निर्देशित इस फिल्म में हेमन्त कुमार का संगीत है।
फिल्म में उस समय के चर्चित कलाकारों- पृथ्वीराज कपूर,
भारत भूषण, गीता बाली, प्रदीप कुमार आदि ने अभिनय किया था।
फिल्म में हेमन्त दा' ने 'वन्देमातरम' को एक 'मार्चिंग
सांग' के रूप में संगीतबद्ध किया था। गीत के दो संस्करण
हैं- पहले संस्करण में लता मंगेशकर की और दूसरे में हेमन्त
कुमार की आवाज है। ‘आनन्दमठ' के अलावा 'लीडर', 'अमर आशा'
आदि कुछ अन्य फिल्मों में भी गीत के अंश अथवा इसकी धुन का
प्रयोग किया गाया है। कुछ वर्ष पहले संगीतकार ए.आर. रहमान
ने महबूब द्वारा किये हिन्दी/उर्दू अनुवाद को संगीतबद्ध कर
और गाकर युवा वर्ग में खूब लोकप्रिय हुए थे| आइए लता
मंगेशकर के स्वरों में फिल्म 'आनन्दमठ' का गीत सुनते हैं।
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विकृष्णमोहन मिश्र
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लेखक,
वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार हैं।
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