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08.10.2012,Tme: 11:11
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कांग्रेस,
कोयला और कालिख
·
Anil
Saumitra
कांग्रेस के नेता भले ही कुछ भी कहें, उनके प्रवक्ता
मीडिया में कुछ भी बोलें, वे चाहे कितनी ही सफाई क्यों न
दें- एक बात तो पक्की है- कांग्रेस बदनाम हो गई है।
कांग्रेस का नाम लेते ही, उसका नाम सुनते ही कोयला,
कालिख, करप्सन, कलई, कलि, कालिमा, कलंक, कंटक, कुटिल,
कपट, कपटी, कलह, कठोर, कलियुग, कलुष-कलुषा, कुख्यात, ़कलंदरी,
कशमकश, कसाई, कसैला, कसूरवार, कारागाह, कायर आदि और ऐसे
ही कई समानार्थी शब्दों की छवि बनती है। एक ऐसी पार्टी
या संगठन जिसकी स्थापना जरूर एक अंग्रेज ने की थी, लेकिन
अनेक वर्षों तक वह देशभक्तों और राष्ट्रवादियों के सेवा
का माध्यम बनी। अंग्रेजों के जाने के बाद गांधीजी ने
कांग्रेस को भंग करने का सुझाव दिया था। कुछ स्वार्थी
नेताओं ने उनकी एक न सुनी। देशभक्त नेताओं की पुण्याई और
सद्कर्मों का फल नेहरू जैसे कुछ स्वार्थी नेता खाना चाहते
थे। इसलिए आजादी के बाद भी कांग्रेस का लाभ उठाया जाता
रहा। तब न सही, लेकिन आज जो कांगे्रस को गांधी की राय न
मानने का श्राप लग चुका है। वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष
अपने नाम के आगे ‘गांधी’ जरूर लगाती हैं, लेकिन उनमें
गांधी के व्यक्तित्व का अंशमात्र भी नहीं है। वे
रंचमात्र भी गांधी के विचारों की उत्तराधिकारी नहीं
हैं।
कांग्रेस जहां सरकार में वहां वह अंग्रेजों की सोच और
नीति का अनुशरण कर रही है। जहां वह विपक्ष में है वह जनता
और जनमानस से कोसों दूर है। गांधीजी का पूरा जीवन
विदेशियों और विदेशपरस्ती से लड़ते हुए बीता। लेकिन
सोनिया माइनो गांधी का संपूर्ण जीवन ही विदेशपरस्त है।
कमोबेश यही कांग्रेस के नेताओं का भी है। जो नेता
विदेशपरस्त या भ्रष्ट नहीं हैं वे दरकिनार कर दिए गए
हैं, वे हाशिए पर हैं। कांग्रेस देश और देशवासियों की
हालत से बेपरवाह है। उसे सिर्फ अपने और अपनों की परवाह
है। कांग्रेस के अपने वे हैं जो या तो उनके सगे हैं, या
देशी-विदेशी रिश्तेदार। कांग्रेस ने जैसे देशी लोगों को
विदेशी नेतृत्व के भरोसे छोड़ दिया है, वैसे ही भारत के
देशी बाजार को विदेशी कंपनियों और पूंजीपतियों के हाथों
में सौंप दिया है। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश हो या
पेट्रो-उत्पादों (तेल) की कीमतें बढ़ाने का मामला
कांग्रेस ने विपक्ष की एक न सुनी, अपने सहयोगी दलों को
छोड़ देना मुनासिब समझा, देश की जनता को भले ही गुमराह
करना पड़े, लेकिन वह अमेरिकापरस्ती नहीं छोड़ सकती।
कांग्रेस को देश की जनता से बस सत्ता चाहिए। कैसे भी,
किसी भी कीमत पर। एक बार सत्ता मिल जाये, जनता जाये भाड़
में। देश आर्थिक संकटों से घिरा हुआ है, किन्तु केन्द्र
सरकार की फिजूलर्खी का आलम यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन
सिंह के मंत्रियों ने 678 करोड़ उड़ा दिए। यह व्यय पिछले
वित्तीय वर्ष की तुलना में 12 गुना अधिक है।
कांग्रेस के नेताओं को कोयले की कालिख, करप्सन की कलई और
मंहगाई देने के कलंक की कोई परवाह नहीं। उसके नेता कलंदर
हैं। उन्हें न तो कुख्यात होने का भय है और न ही कसूरवार
होने का मलाल। जनता को मंहगाई से मार डालने पर उन्हें
कोई कसाई कहे तो कहे। समस्याओं से मुंह चुराने पर विरोधी
उन्हें कायर कहें तो कहें। वे अपनी कुटिलता नहीं छोड़
सकते।
कांग्रेसी बेशर्म भी हो गए हैं। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता
सुशील श्ंिादे ने इसका उदाहरण दे दिया। केन्द्र सरकार के
तीसरे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सोच-समझकर बेतुका
बयान दिया। उन्होंने कहा कि कोयले से हाथ काले हो जायें
तो पानी से धोने पर फिर साफ हो जोते हैं। जनता जिस तरह
बोफोर्स घोटाले को भूल गई, कोयला घोटाले को भी भूल जायेगी।
जनता भूले, न भूले कांग्रेस जरूर भूल जाती है। जनता तो
घोटाले नहीं, छठी का दूध भी याद दिला देती है। कांग्रेस
को भी याद होना चाहिए, जनता ने 1984 में कांग्रेस को 400
से अधिक सीटें दी थी। लेकिन उसके बाद उसी जनता ने उसका
ऐसा हश्र किया कि उसे आज तक पूर्ण बहुमत से मोहताज कर
दिया। आवाम को यह भी याद नहीं है कि बीते कुछ वर्षों में
कांग्रेस की सरकार ने लोक-लुभावन और लोक-कल्याणकारी कौन-से
कदम उठाये। काफी समय से ऐसा ही हो रहा है कि जनता आह! आह!
कर रही है, ये कराहने की आवाजें हैं। काश! कि कांग्रेस
के लिए जनता वाह!वाह करती।
कांग्रेस का यही हाल मध्यप्रदेश में भी है। दिग्विजय
सिंह ने अपने कार्यकाल में प्रदेश का ऐसा बंटाधार किया
कि जनता ने उनके समेत कांग्रेस को प्रदेश से बेदखल कर
दिया। यहां कांग्रेस कलह की शिकार है। मुद्दाविहीन है।
कांग्रेस को विपक्ष में बैठे 10 वर्ष होने का आया। वह
खामोश है। उसे सत्ता तो दिख रही है, लेकिन जनता के लिए
संघर्ष का इरादा नहीं। गुटों और आंतरिक कुटिलता की शिकार
कांग्रेस भाजपा की सरकार और संगठन की सक्रियता के आगे
भीगी बिल्ली हो गई है। उसके पास न तो अपने कार्यकर्ताओं
के सवालों का जवाब है और न ही केन्द्र सरकार के निर्णयों
से हो रही जनता की तकलीफों का उपाए। कांग्रेस सत्ता और
विपक्ष दोनों रूपों में पिट रही है। कांग्रसी नेताओं का
खलनायकों का इतिहास पीछा नहीं छोड़ रहा है। वे
राजे-रजवाड़ों और सामंत प्रवृति से बाहर नहीं आ पा रहे
हैं। आमजन की आवाजों से कोसों दूर अपने ही कोलाहल में
डूबे कांग्रेसी सत्ता के लिए मारी-मारी तो कर सकते हैं,
लेकिन वे जनता का विश्वास नहीं जीत सकते। कांग्रेस जनता
का विश्वास हार चुकी है। कांग्रेस के नेता आत्मविश्वास
खो चुके हैं। जनता उनसे और वे जनता से दूरी बना चुकी है।
यह खाई बड़ी है और बढ़ती ही जा रही है। कांग्रेस के लिए
इस खाई को पाटना दूर की कौड़ी है।
कांग्रेस का आलाकमान तो कोयले की कालिख से कलंकित है।
उसका प्रदेश नेतृत्व अपने रसूख और जायदाद को बचाने की
जुगत में फ्रिकमंद है। प्रदेश की भाजपा सरकार के साथ
कांग्रेस की धींगामुश्ती इसी फ्रि़क्र के कारण है। जनता
के लिए अपनी फ्रिक्र को कांग्रेस बहुत पहले दफन कर चुकी
है। इसी महीने खंडवा में हुई कार्यसमिति में भाजपा
अध्यक्ष ने तीसरी बार सरकार बनाने के लिए तैयारी करने का
आह्वान किया है। हरियाणा के सूरजकुंड में हुई भाजपा की
राष्ट्रीय परिषद् भी निर्णायक सिद्ध हुई है। भाजपा ने
केन्द्र में एनडीए के विस्तार का संकल्प लिया है और
प्रदेश में तीसरी बार सरकार बनाने का नारा दिया है। भाजपा
का नेतृत्व, नारा और कार्यकर्ता एक है। इस मामले में
कांग्रेस अनेक है। भाजपा सक्रिय है, कांग्रेस निष्क्रिय।
भाजपा कार्यकर्ता आत्मविश्वास से लबरेज, लेकिन कांग्रेस
के कार्यकर्ता सशंकित और नेतृत्व की गुटबाजी के कारण
कशमकश में। प्रदेश की जनता देश में परिवर्तन और और
मध्यप्रदेश में निरन्तर होने की बाटजोह रही है।
(लेखक चरैवेति पत्रिका के संपादक और मीडिया एक्टीविस्ट
हैं)
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लेखक,
वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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