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आलेख / हृदयनारायण
दीक्षित
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Article Published ON 19 Nov. 2011
हृदयनारायण दीक्षित
घेराव में
फंसा हाथी बड़ा उत्पात मचाता है, तोड़फोड़ करता है, घरों और
वृक्षों को भी तहस-नहस कर देता है। तमाम आरोपों से घिरी
उत्तार प्रदेश की मुख्यमत्री मायावती ने चुनावी साल में
उत्तार प्रदेश को चार खंडों में तोड़ने का प्रस्ताव किया
है। उत्तार प्रदेश के बुंदेलखंड में अकाल और भुखमरी है,
रोटी-रोजी की कौन कहे पेयजल का भी अभाव है। पूर्वाचल की
गरीबी और व्यथा भयावह है। पूर्वाचल और बुंदेलखंड को जो
सहायता चाहिए, वह मिली नहीं। पर मुख्यमत्री ने पश्चिम, अवध,
बुंदेलखंड व पूर्वाचल - चार राज्यों का मसौदा बनाया है।
सविधान निर्माताओं ने मूलत: नौ सामान्य व जम्मू-कश्मीर,
हैदराबाद सहित 11 विशेष श्रेणी के राज्य बनाए थे। बाद में
तमाम कारणों से 1953 में आंध्र प्रदेश, 1956 में केरल व
कर्नाटक, 1960 में बंबई को तोड़कर महाराष्ट्र व गुजरात,
1962 में नागालैंड, 1966 में हरियाणा, 1970 में हिमाचल
प्रदेश, 1971 में मेघालय, मणिपुर व त्रिपुरा, 1986 में
मिजोरम व अरुणाचल, 1987 में गोवा और 2000 में छत्ताीसगढ़,
उत्ताराखंड व झारखंड बने। संप्रति 28 राज्य व 7
केंद्रशासित क्षेत्र हैं।
मूलभूत प्रश्न यह है कि भारत को कितने
राज्य चाहिए और क्यों चाहिए? तेलगाना जल रहा है। नए राज्य
की माग राष्ट्रीय चुनौती है। पश्चिम बगाल में गोरखालैंड,
महाराष्ट्र में विदर्भ, असम में बोडोलैंड व जम्मू-कश्मीर
में जम्मू-लद्दाख की माग फिलहाल शांत हैं। लेकिन उत्तारी
बिहार में मैथिल भाषायी मिथिलाचल की माग भी कर रहे हैं।
गुजरात के तटीय क्षेत्र से सौराष्ट्र और उड़ीसा से कोशल
राज्य की भी मागें हैं। बेशक सारे देश में क्षेत्रीय
असतुलन है, विकास के लाभ का समान वितरण नहीं होता। लेकिन
उत्तार प्रदेश को खत्म कर चार टुकड़ों में बाटने का
प्रस्ताव स्वय मुख्यमत्री की तरफ से आया है। यहा नए राज्यों
की माग पर तेलगाना जैसा कोई जनउद्वेलन नहीं है। अवध राज्य
का विचार पहली दफा सुनने को मिला है। यहा बुंदेलखंड और
पूर्वाचल के विकास की अलग निधिया हैं। आखिरकार मुख्यमत्री
ने पूर्वाचल और बुंदेलखंड के लिए कोई विशेष प्रयास क्यों
नहीं किए। प्रधानमत्री ने भी 2008 में वाराणसी में
पूर्वाचल राज्य का शिगूफा छेड़ा। राहुल गाधी ने बुंदेलखंड
के लिए ऐसी ही बातें कीं। केंद्र और राज्य सरकार ने गरीबी,
अभाव दूर करने के लिए कुछ नहीं किया। प्रश्न है कि क्या नए
राज्यों का गठन ही सारी समस्याओं का हल है?
भारत के राज्य गहन विचार-विमर्श से नहीं
बने। भाषा पुराना आधार था, इसके बाद विभिन्न आंदोलन चले,
राज्य बढ़ते गए। अंग्रेजी राज में भी साइमन कमीशन के समक्ष
बंबई प्रेसीडेंसी से कर्नाटक और सिध को अलग करने की माग
थी। डॉ. अंबेडकर ने विरोध किया, 'एक भाषा-एक प्रात का
सिद्धात इतना बड़ा है कि यदि इसे व्यावहारिक रूप से लागू
किया जाए तो बहुत से प्रांत बनाने पड़ेंगे। आज वक्त का तकाजा
है कि जनता के मन में साझी राष्ट्रीयता की भावना पैदा की
जाए। यह भावना नहीं कि वे हिंदू, सिंधी, मुस्लिम या कन्नड़
है, वे मूलत: भारतीय हैं और अंतत: भारतीय ही हैं।' उत्तार
प्रदेश की मुख्यमत्री नोट करें कि डॉ. अंबेडकर राज्य तोड़ने
के विरुद्ध थे, राष्ट्र सर्वोपरिता के मार्ग पर थे, लेकिन
मुख्यमत्री सिर्फ राजनीति के लिए ही ऐसा खतरनाक चुनावी
स्टंट कर रही हैं।
भारत के राज्य अस्थायी सवैधानिक इकाइया
हैं। ससद को नए राज्यों के गठन, वर्तमान राज्यों के
क्षेत्रों की सीमाओं और नामों में परिवर्तन के अधिकार हैं
लेकिन राज्य पुनर्गठन रोजमर्रा का राजनीतिक कर्मकांड नहीं
है। पुनर्गठन का मतलब नए राज्य बनाना ही नहीं होता। कुछ को
तोड़कर और कुछ को जोड़कर एक आदर्श राज्य इकाई बनाना ही
पुनर्गठन होता है। राज्यों में कई तरह की विषमताएं हैं। कहीं
भूक्षेत्र बड़ा है तो कहीं जनसख्या। एक निश्चित समयावधि में
लोकसभा विधानसभा सीटों का परिसीमन होता है। वैसा ही
परिसीमन राज्यों का भी क्यों नहीं हो सकता? वर्तमान राज्य
व्यवस्था में अराजकता है। राज्यों के क्षेत्रफल और जनसख्या
में जमीन-आसमान का फर्क हैं। सभी राज्यों का भूक्षेत्र
लगभग बराबर क्यों नहीं हो सकता? लगभग एक समान जनसख्या क्यों
नहीं हो सकती? आर्थिक, सास्कृतिक, जनसाख्यिक आदि सभी मसलों
को जोड़कर एक आदर्श राज्य की रूपरेखा बनाना बहुत जरूरी है।
भाषा, मजहब और राजनीतिक आग्रहों से मुक्त होकर आदर्श राज्य
की परिभाषा बननी चाहिए।
नए राज्यों की मागों और आंदोलनों से बड़ी
क्षति हुई है। स्वाधीनता सग्राम सेनानी पोट्टी श्रीरामुलु
आंध्र की माग पर अनशन करते हुए प्राण गंवा बैठे। ऐसे अनेक
आंदोलनों में राष्ट्रीय संपदा की भी भारी क्षति हुई है।
तेलगाना की हालत आज भी बहुत खराब है। लेकिन उत्तार प्रदेश
के हालात अलग है। यहा कभी भी क्षेत्रवाद नहीं रहा। राष्ट्र
से भिन्न कोई सामूहिक अस्मिता नहीं रही। राज्य विभाजन की
माग करने वाले छुटपुट महानुभावों ने क्षेत्रीय असतुलन और
उपेक्षा के सवाल ही उठाए हैं। पूर्वाचल और बुंदेलखंड के
अभाव वास्तविकता हैं लेकिन राज्य को चार खंडों में तोड़ने
का प्रस्ताव परिशुद्ध राजनीतिक कवायद है। भ्रष्टाचार,
अराजकता और किसान विद्रोह झेल रही मुख्यमत्री ने राज्य के
ज्वलत प्रश्नों से जनता का ध्यान हटाने के लिए ही यह मुद्दा
उछाला है। उन्हें ठीक पता है कि जो केंद्र तेलगाना जैसी
औचित्यपूर्ण माग पर भी अनिर्णय का शिकार है, वह उनके अगभीर
राजनीतिक स्टंट पर कतई गौर नहीं करेगा। वह गलतफहमी में हैं
कि जनता राज्य विभाजन के प्रस्ताव पर उनके साथ खड़ी हो जाएगी।
बुनियादी सवाल राज्य गठन के मानक,
आवश्यकता व औचित्य का है। आखिरकार भारत को कैसे राज्य
चाहिए? क्या प्रशासनिक गुणवत्ता के लिए और नए राज्य चाहिए?
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली छोटा राज्य है। गृह विभाग केंद्र
के हवाले है लेकिन कानून व्यवस्था खस्ता है। कई छोटे राज्यों
में कम विधानसभा सदस्य सख्या के कारण आए दिन अस्थिरता रहती
है। जातिवाद, सांप्रदायिकता, सामंतवाद और माफियावाद के
भूतप्रेत राष्ट्रीय स्तर पर कम हैं, राज्य स्तर पर ज्यादा
हैं, जिलास्तर पर उससे भी ज्यादा हैं। लेकिन वर्तमान राज्यों
को जोड़कर बड़ा राज्य बनाने की मागें कभी नहीं उठतीं। नए
राज्यों की मागे प्राय: राजनीतिक हैं। नया राज्य होगा तो
राजकोष के उपभोक्ता बढ़ेंगे। जनता का कोई कल्याण नहीं होगा।
सुशासन और विकास की मागों के अनुसार आदर्श राज्य का कोई
मॉडल तो बनाना ही होगा- जनसख्या, क्षेत्रफल, क्षेत्रीय
सास्कृतिक वैशिष्टय, प्रशासनिक विकेंद्रीकरण या सिर्फ
राजनीतिक दुराग्रह।
(साभार जागरण डाट काम)
स्वयं गीत गाती कविताएं है ऋचा
हृदयनारायण दीक्षित
गीत
और काव्य भाव जगत का सौन्दर्य हैं। गीत गाए जाते हैं,
कविताएं भी। इसीलिए कवियों और गीतकारों की प्रतिष्ठा है।
लेकिन वैदिक कविताएं साधारण कविता नहीं है। उन्हें कविता
कहना भाषा की विवशता है। ऋषियों के सामने ऐसी कोई विवशता
नहीं थी। उनके अनुभव भिन्न थे। उन्होंने अपने काव्य मंत्रों
का नाम रखा-ऋचा। ऋचा भी कविता है, लेकिन सामान्य काव्य से
भिन्न है। कविता में भाव होते है, रस होते है, छन्द होते
हैं, लय होती है। सौन्दर्य को शब्द देने वाले बिम्ब होते
है लेकिन ऋचा का अपना सौन्दर्य है। बेशक वे काव्य है लेकिन
उसे किसी कवि ने नहीं गढ़ा। ऋचाएं स्वयं जीवन्त हैं, वे
शब्दों का जोड़ नहीं है। उनका अपना व्यक्तित्व है। वे स्वयं
प्राणवान है। वे स्वयं ही गीत गाती है। ऋषि को ऋचाएं मिलती
हैं, कवि कविता गढ़ता है। ऋग्वेद (1.164.39) में ऋचा के बारे
में एक प्यारा मंत्र है। ऋषि गाते हैं ''ऋचो अक्षरे परम
व्योमन - ऋचाएं अविनाशी परम व्योम में रहती हैं।'' परम
व्योम गभीर अर्थ वाला है। वरना व्योम कहने से भी काम चल
सकता था। लेकिन तब आकाश का ही बोध होता। आकाश विराट है वह
ऊपर ही नहीं, यहां हमारे आपके सबके बाहर और भीतर भी है।
परम व्योम सामान्य आकाश से बड़ा है। एक ज्ञात है और ढेर सारा
अज्ञात। इसी के साथ ज्ञेय और अज्ञेय आकाश भी है।
परमव्योम अनन्त है, कोई शुरूवात नहीं, इसका कोई अंत नहीं।
यह अक्षर है। अविनाशी है, सदा से है। इसीलिए परम व्योम के
पहले 'अक्षरे' - अविनाशी विशेषण लगा हुआ हैं। परम व्योम बड़ी
खूबसूरत जगह है। यहीं पर विश्व के सभी देवता भी रहते हैं -
यस्मिन देवा अधि विश्वे निषेदु:। जहां सारे प्रकाश पुंजों
का निवास है, वही है अविनाशी परम व्योम। वहां प्रकाश धाम
है। सूर्य उसी आलोक से संसार को जगमग करते है। यही ढेर सारे
चन्द्रा करोड़ों नक्षत्रों और सभी भौतिक और आधिभौतिक
दीप्तियों का पावर हाउस है। वैदिक देव प्रकाशवाची है। जहां
सारे देवता रहते हैं, वहीं रहती हैं ऋचाएं। ऋचा और देव एक
ही पुर नगर के निवासी हैं। उनमें स्वाभाविक ही प्रगाढ़
मैत्री है। देवगण ऋचाओं से प्रीति करते हैं, ऋचाएं उनके
प्रेम में गीत गाती हैं। जैसे देवताओं का स्वभाव दिव्यता
है, वैसे ही ऋचाओं का स्वभाव भी दिव्यता है। ऋषि कहते हैं
- जो इस बात को नहीं जानते, उनके लिए ऋचा बेमतलब है -
यस्तन्न वेद किमृचा करष्यिति। (वही) ऋचा से अंतरंग परिचय
जरूरी है, वरना सारे ऋचाएं 'शब्द देह' हैं।
विश्वविख्यात्गायत्री मंत्र वाली ऋचा ''तत्स्वितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य'' तेजोमय सविता की आराधना है। इसे दोहराने
वाले करोड़ो हैं। 'न्नयंबकम् यजामहे सुगंधिम्' ऋचा
महामृत्युंजय मंत्र के रूप में दोहराई जाती है। सारे
दोहराव यांत्रिक कार्रवाई हैं। मूल बात है उनकी तत्व
अनुभूति। वैसे यांत्रिक - मैकेनिकल ढंग से मंत्र दोहराने
वाले के लिए ऋचा कोई सहयोग नहीं करती।
ऋचा और श्लोक काव्य में मौलिक अंतर हैं। ऋचा प्रगाढ़ अनुभूति
की दिव्यता है और श्लोक काव्य प्रखर बुध्दि के सृजन हैं।
वेद अन्तरगुहा के संगीत हैं, वे परम व्योम की दिव्यता से
ही उगे हैं। ऋचा के शाब्दिक अर्थ का कोई मूल्य नहीं। यहां
शास्त्रार्थ का कोई लाभ नहीं। जोर-जोर से मंत्र गाने का
कोई उपयोग नहीं। ऋषि की उद्धोषणा दो टूक है - यस्तं न वेद
किमृचा करिष्यति। जो तत्व नहीं जानता, उसके लिए ऋचा क्या
कर लेगी? लेकिन बात इतनी ही नहीं है। जानने वालों के लिए
भी यहां शुभ सूचना है - ''य इत्ताद्विदस्तु इमे समासते।''
(वही) बताया है कि ''जो यह तत्व जानते हैं, ऋचाएं उनकी
सहायता करती हैं, वे ऋचाओं की अनुकम्पा का उपयोग करते हैं।
परम व्योम की अनुभूति में ही दिव्यता है, यही देव है, यही
ऋचाएं है, यही गीत हैं, यही मंदिर की घंटिया है, यही काव्य
का चरम है, यही परम तत्व की सलिल मन्दाकिनी है। यही सत्
है, यही चैतन्य है, यही आनंद है। आत्मबोध का कोई विकल्प नहीं।
पहले जानना। श्रध्दा अपने आप आएगी, विश्वास की कोई जरूरत
नहीं। दिव्यता जानने का ही प्रसाद है। परम व्योम का संगीत
अंदर ही है, हम और परमव्योम अलग-अलग सत्ताा नहीं है। स्वयं
को अलग जानना ही माया है, अज्ञान है। जागरण्ा की छोटी सी
झलक भी अंतरगुहा को दीप्ति से भर देती है। तब ऋचाएं अपने
आप भागी-भागी बेचैन होकर हमारी तरफ चली आती है। अंतर्जागरण
का रसायन अद्भुत है। दुनिया का सारा सौन्दर्य, शुभ शिव,
चेतन और आनंद दौड़ता हुआ भीतर की ओर आता है। ऋग्वेद
(5.44.14) के ऋषि बताते हैं, ''जो जागा हुआ है, ऋचाएं उसकी
कामना करती हैं - यो जागार तं ऋच: कामयन्ते। ऋचाएं अभिभूत
होती है, जागे हुए चित्ता के प्रति। वे सीधे उसके हृदय में
बरसती है, मेघ की तरह। आगे कहते हैं ''जो जागे हुए हैं,
सामगान आते है - यो जागार तं हि सामानि यन्ति।'' मनुष्य
संसार के रहस्य इन्द्रियबोध से पाता है। खुली आखों और मन
बुध्दि के सहयोग से संसार देखा जाता है लेकिन ऋषि यहां
सामान्य आखों वाले जागरण से भिन्न जागरण की ही चर्चा करते
हैं। यह जागरण निद्रा से मुक्त सामान्य जागरण नहीं है। यहां
अन्तर्जागरण की ही महत्ताा है। अग्नि प्रत्यक्ष हैं,
सामान्य जागरण से भी दिखाई पड़ते है लेकिन अन्तर्जागरण में
वे दिव्यता हैं और देवता हैं। ऋषि कहते हैं, ''जागृतों
द्वारा अग्नि प्रतिदिन उपासना पाते हैं।'' (ऋ0 3.29.2)
रस की जानकारी अनुभव से ही होती है। स्वाद बड़ा प्यारा शब्द
है, लेकिन अनुभवजन्य है, हम आप स्वाद की जानकारी बिना
अनुभव नहीं पा सकते। आयुर्वेद के विद्वान मिर्च को 'दाहकारक'
बताते हैं, हम सब मिर्च के स्वाद को कड़ुवा कहते हैं।
आयुर्वेद के विद्वानों ने अनुभव से ही इसे दाहकारक कहा है।
मिर्च वस्तुत: कडुवी नहीं होती, वह जीभ और मुंह में
दाह-जलन पैदा करती है। प्रगाढ़ अनुभव में यह दाहकारक है और
सामान्य अनुभव में कडुवी। रस का स्वाद जानने के लिए गहन
रसना बोध चाहिए। रूप का स्वाद पाने के लिए गहन सौन्दर्यबोध
चाहिए। सुगंध में मस्त होने के लिए गहन गंध बोध चाहिए।
शब्द में उतरने के लिए गहन श्रुति बोध चाहिए। संसार और
हमारे बीच इन्द्रियां सेतु हैं, इन्द्रिय बोध की पराकाष्ठा
ही संसार की समझ देती है। उपनिषद् गाने वाले हमारे पूर्वज
इन्द्रियबोध के चरम पर थे। अचरज होता है उनके बोध पर। बताया
है कि यह पृथ्वी समस्त भूतों का मधु है। गाया है ''अन्न
ब्रह्म है''। कहा है ''वह रस है - रसोवैस:। गुनगुनाया है -
वह परम आनंद है - सत् चित् आनंद है। रस के स्वाद में पैठे
तो रस में परमसत्ताा को ही पाया। अन्न के स्वाद में उतरे
तो आखिरी छोर पर ब्रह्म का ही स्वाद पाया। श्रवण बोध की
पराकाष्ठा थी उनमें। उन्होंने हरेक गूंज अनुगूंज में एक
परम सत्य की ही अनुगूंज सुनी। ऋग्वेद के ऋषियों ने मेढ़कों
को भी सामगान गाते देखा सुना था।
काव्य और ऋचा में मूलभूत अंतर है। ऋचा में मधुरस हैं, वे
मधुविद्या हैं। काव्य में मधु शब्द हैं, वे शब्द संयोजन के
कारण किसी अर्थ का संकेत मात्र है। मधु रस पदार्थ है,
मधुरस शब्द भी है। ऋचा स्वयं में रस है, मधु रस से लबालब
छत्ताा। मधुरस शब्द से रस नहीं टपकता। आम एक फल है और आम
एक शब्द भी। आम्रफल का स्वाद रससिक्त होता है, लेकिन आम
शब्द में स्वाद नहीं होता। ऋचाएं रसवंत हैं, मधुरस से
लबालब है, यह रस मधुविद्या भी हैं, जिनने यह मधु रस पिया
है, वे ही ऋचा का स्वाद जानते हैं। जिनने इन्हें शब्द रूप
जाना है, वे इनके अर्थ में कोरा बौध्दिक व्यायाम करते हैं।
इन्द्रियबोध की पराकाष्ठा में संवेदनशीलता है। संवेदनशीलता
के चरम पर आत्मबोध का दरवाजा है। ऋचाएं परमव्योम में रहने
वाली माताएं हैं। वे हम सब पुत्रों के वात्सल्य रस से भरी
पूरी है। वे जागृत आत्मबोध वाले पुत्रों के चित्ता में
उतरती है, ऋध्दि सिध्दि और समृध्दि लेकर। तब सारा अंतर्जगत,
समूचा अन्तर्भाव सामगान में लहालोट होता है। तब जीवन गीत
बन जाता है, देह नृत्य हो जाती है। समूचा व्यक्तित्व भीतर
बाहर मन्त्र हो जाता है। तब सारे द्वैत मिट जाते हैं,
अद्वैत साक्षात हो जाता है। सत्य प्रत्यक्ष हो जाता है।
बेशक आधुनिक काल के मंत्री बड़े वैभवशाली हैं, लेकिन
अंतर्जगत में ऋचा और मंत्र ही समृध्दि देते
हैं
परमतत्व ही दिव्य प्रकाश है
हृदयनारायण दीक्षित
मनुष्य रहस्यपूर्ण है। वह प्रकृति का हिस्सा है। उसमें
प्रकृति की शक्तियां हैं। प्रकृति के गुण भी हैं लेकिन उसमें
परमचेतना भी है। प्रकृति के गुणों के कारण वह विवश है
लेकिन परमचेतना के कारण उसमें मुक्ति की अभिलाषा भी है।
विज्ञान ने मनुष्य के अध्ययन पर गहन परिश्रम किया है। इस
अध्ययन के अनुसार वह सृष्टि के विकासक्रम का एक जीव है।
भारतीय दर्शन ने इसके भीतर बैठे संचालक को प्रकृति में
व्याप्त लेकिन प्रकृति से परे भी बताया है। मनुष्य का
आंतरिक तत्व बेशक वैयक्तिक-इन्डीविजुअल/इकाई है लेकिन यह
आत्मतत्व सम्पूर्ण है, असीम भी है। उच्चतर बोध की स्थिति
में वह ज्ञाता है। वही ज्ञान है, वही ज्ञान का लक्ष्य भी
है। प्रकृति अचेतन है। सांख्य दर्शन के अनुसार साम्यावस्था
के भंग होने पर उसमें सक्रियता आती है। प्रकृति ही सारी
घटनाओं का क्षेत्र है। यही कर्म क्षेत्र है, यही धर्म
क्षेत्र है। कह सकते हैं एक महत्वपूर्ण घटनास्थल। घटनाओं
के ''कारण तत्व'' को सम्पूर्णता में जानने वाला
विशेषज्ञ-क्षेत्रज्ञ है। गीता के 13वें अध्याय में
श्रीकृष्ण ने मनुष्य के संदर्भ में कहा, ''यह शरीर क्षेत्र
कहा जाता है - इदंशरीरं क्षेत्रमित्यमिधीयते। और जो इसे
जानता है वह क्षेत्रज्ञ है।'' (वही 1) गीता के कई संस्करणों
में कृष्ण ने यह बात अर्जुन द्वारा पूछे गए प्रश्न के
उत्तर में बताई है। लेकिन गीता प्रेस के संस्करणों में
अर्जुन के प्रश्न वाले श्लोक का उल्लेख नहीं है।
संसार क्षेत्र है, शरीर भी क्षेत्र है। क्षेत्र की जानकारी
वाले ढेर सारे विद्वान हुए हैं लेकिन समूची प्रकृति का
ज्ञाता कोई विरल ही होना चाहिए। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा
''तू सब क्षेत्रों में मुझे क्षेत्रज्ञ जान। क्षेत्र और
क्षेत्रज्ञ (दोनो) को जानने वाला ज्ञान ही मेरे मत में
सच्चा ज्ञान है।'' (वही 2) यहां वास्तविक ज्ञान की परिभाषा
के साथ 'मेरे मत में' शब्द ध्यान देने योग्य है। गीता के
रचना काल में कई मत प्रचलित थे। इसीलिए श्रीकृष्ण ने अपना
अभिमत प्रकट किया। फिर 'क्षेत्र' के बारे में विस्तार से
बताते हैं ''क्षेत्र क्या है? किस तरह का है? क्षेत्र में
क्या क्या परिवर्तन होते हैं? उसका स्रोत क्या है? वह क्या
है? उसकी शक्तियां क्या हैं? मुझसे सुन।'' (वही 3) कहते
हैं ''ऋषियों द्वारा अनेक गीतों, छन्दों में पृथक-पृथक इसका
वर्णन किया गया है, इसका वर्णन तर्कसम्मत समुचित व्याख्या
के साथ ब्रह्म सूत्रों में भी आया है - ब्रह्मसूत्र
पदैश्चैव। (वही 4) गीता में 'क्षेत्र' का वर्णन 'मनुष्य
व्यक्तित्व' को आधार बनाकर किया गया है। लेकिन क्षेत्र और
भूक्षेत्र का वर्णन चरक संहिता में भी है।
बुध्द ने संसार को दुखमय बताया था। उनके पहले उपनिषद्काल
में सांसारिक दुखों से छुटकारे के रूप में ज्ञान प्राप्ति
को मुक्तिदायी जाना गया लेकिन वैदिक ऋषि संसार को आनंद का
क्षेत्र देखते थे। संसार उनके लिए माया नहीं था। वे स्वस्थ
रहते हुए कम से कम 100 वर्ष के जीवन अभिलाषी थे। ऋग्वेद और
यजुर्वेद में दीर्घजीवन की स्तुतियां हैं। अथर्ववेद में भरे
पूरे चिकित्सा विज्ञान के मौलिक बीज हैं। चरक संहिता में
प्रकृति विज्ञान के महत्वपूर्ण सूत्र है। इसी का एक खण्ड
है 'शारीर-स्थान'। यहां खूबसूरत प्रश्नोत्तारी है।
अग्निवेश ने पूंछा ''जब यह आत्म कत्तर्ाा नहीं है तो क्रिया
कैसे करता है? यदि परमविभु है तो सब प्रकार की सब स्थानों
में होने वाली पीड़ाओं को क्यों नहीं जानता? यह आत्मा
क्षेत्र है या क्षेत्रज्ञ? इसमें भी संशय है - क्षेत्रज्ञ:
क्षेत्रमथवा।'' सवाल बड़े हैं, पूछते हैं ''रोगों (वेदनाओं)
का कारण क्या है? वेदनाओं का अधिष्ठान क्या है? वेदनाएं कहां
शान्त होती हैं? एक मजेदार प्रश्न है कि प्रकृति क्या
है?'' उत्तार है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी,
अव्यक्त-मूल प्रकृति महत् और अहंकार यह मिलकर 8 की भूत
प्रकृति है, पांच ज्ञानेन्द्रियं, पांच कर्मेन्द्रियां, मन
और पांचों इन्द्रियों के पांच अर्थ रूप, रस, गंध, शब्द,
स्पर्श के समूह को विकार कहते हैं। उक्त 24 में से अव्यक्त
मूल प्रकृति को घटाकर बाकी 7 प्रकृति व 16 विकास 'क्षेत्र'
हैं, इसी क्षेत्र के ज्ञाता को क्षेत्रज्ञ कहा गया है।
गीता में वर्णित क्षेत्र चरक से थोड़ा भिन्न है। श्रीकृष्ण
ने बताया ''5 महाभूत (पृथ्वी, आकाश आदि) अहंकार बुध्दि,
अव्यक्त, 10 इन्द्रियां, मन और पांचो इन्द्रियों के 5 विषय
(अर्थात कपिल के सांख्य दर्शन के कुल 24 तत्व) हैं। इच्छा
द्वैष, दुख-सुख, शरीर बुध्दि स्थिरिता आदि मिलाकर क्षेत्र
है।'' (गीता 13.5-6) श्रीकृष्ण इस क्षेत्र के ज्ञान के साथ
इस क्षेत्र के ज्ञाता अर्थात क्षेत्रज्ञ का भी ज्ञान
अनिवार्य बताते हैं। (वही 13.2) फिर ज्ञान की परिभाषा करते
हैं ''विनम्रता, निश्च्छलता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता,
विद्वान की सेवा, सब तरह की शुध्दि, दृढ़त, आत्मसंयम,
इन्द्रिय विषयों से वैराग्य, अहंशून्यता, जन्म, मृत्यु,
बीमारी, बुढ़ापा की समझ, अनासक्ति, परिजनों के प्रति
मोहशून्यता, इष्ट-अनिष्ट घटनाओं के प्रति समचित्ता, अनन्य
भक्ति योग, एकान्तिक चिन्तन, भीड़ से विरक्ति के साथ-साथ
तत्वज्ञान दर्शन के लिए आत्मज्ञान में संलग्नता ज्ञान है -
अध्यात्म ज्ञानित्यत्वं तत्वज्ञानार्थ दर्शनम्। इसके भिन्न
सब कुछ अज्ञान है। (वही 7-11) गीता में ज्ञान प्राप्ति की
सुपात्रता की गुण सूची है। ज्ञान की अन्तर्यात्रा मजेदार
है। हम प्रकृति में हैं, प्रकृति के अंश हैं, हम पदार्थ
हैं, मिट्टी हैं, जल हैं, ऊष्मा हैं लेकिन इसके अलावा हमारे
भीतर एक सूक्ष्मतर प्रवाह भी है। हमारे भीतर कामनाएं हैं,
अहंकार है। इसके भी आगे विराट भावजगत है, इसी के कारण हम
पौधे की कटान, या चीटी, चिड़िया के दुख को देखकर दुखी भी
होते हैं। इसके भी आगे एक और संसार है, जहां हम सिर्फ हम
नहीं होते।
पूर्वजों ने अन्नमय प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय कोष
बताए हैं। अर्न्तजगत के रहस्य बड़े गहरे हैं। अध्यात्म किसी
अज्ञात ईश्वर की पूंजा या उपासना नहीं है। ज्ञान ही
आनंददाता और मुक्तिदाता है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा ''अब
मैं यह बताऊंगा कि जानने योग्य क्या है - ज्ञेयं
यत्ताप्रवक्ष्यामि। इसे जानकर 'शाश्वत जीवन' (डॉ0
राधाकृष्णन्) प्राप्त हो जाता है - यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
जानने योग्य वह परब्रह्म है, इसका आदि नहीं है और न सत् है
नहीं असत्। (वही 12) श्वेतश्वतर उपनिषद् (3.7) में भी कहते
हैं ''उसे जानकर ज्ञानीजन अमर हो जाते है - तं ज्ञात्वा
अमृता भवन्ति। इसके बहुत पहले यजुर्वेद (31.8) में कहते
हैं ''तमेव विदित्वाति मृत्युमेति - ज्ञानी उसे जानकर
मृत्यु का उल्लंघन करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं ''उसके हाथ
पैर सब जगह हैं, उसकी आंखे मुख सब ओर है, वह सबको आवृत्ता
करता है सर्वत्र विद्यमान है।'' (गीता 13.13) यहां गीता के
ही विश्वरूप का दोहराव है और ऋग्वेद के 'पुरूष' की परम्परा
है। परम चेतना सर्वत्र है। बताते हैं ''उस परम में
इन्द्रियों के गुण आभासित होते हैं। लेकिन वह इन्द्रिय
रहित है। वह अनासक्त है लेकिन सबको सम्हालताा है। वह
गुणरहित है फिर भी उनका उनका उपभोग करता है।'' (वही 14)
परम तत्व की व्याख्या असंभव है। गीता में परस्पर विरोधी
गुणों को एक जगह लाकर इसकी व्याख्या की गई है। विरोधी गुणों
का सहअस्तित्व उपनिषदों की परम्परा है। कठोपनिषद् (2.20)
में कहते हैं ''वह अणु से भी छोटा है। और महान से भी महान
है - अणोरणीयान् महतो महीयान। तैत्तिारीय उपनिषद् के
सुन्दर मंत्र (2.6) में कहते हैं ''वह निरूक्त है,
अनिरूक्त है। विज्ञान है, अविज्ञान भी है। वह सत्य है और
अनृत (झूठ) है - विज्ञानं अविज्ञानं च, सत्यं नामृतं च।
श्वेताश्वतर उपनिषद् (1.8) में कहते हैं ''वह क्षर और
अक्षर व्यक्त और अव्यक्त है। वृहदारण्यक उपनिषद् (1.5.2)
में कहते हैं ''वह संचरणशील है, असंचरणशील भी है - संचरन्
च असंचरन च।'' ईशावास्योपनिषद् के गुनगुनाने योग्य मंत्र
(5) में कहते है ''वह चलता है, स्थिर भी है, वह दूर है, वह
पास है, वह भीतर है, सबके बाहर भी है - तदेजेति तन्नेजेति
तद्दूरे द्विन्तिके/तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्या वाह्यत:।
श्रीकृष्ण गीता (13.15-16) में कहते हैं ''वह सबके भीतर
हे, अन्दर भी है। वह स्थिर है और गतिशील है, वह सूक्ष्म
है, अविज्ञेय है। वह बहुत दूर है वह बहुत निकट है। वह एक
अविभाज्य है फिर भी प्राणियों में विभक्त दिखाई पड़ता है।
वह सबका भरण पोषण करता है, वही विनाशकत्तर्ाा है, वही फिर
नये सिरे से उत्पन्न करता है।'' परमतत्व दिव्य प्रकाश है।
बताते है ''वह ज्योतियों की ज्योति है, वह अंधकार से परे
है, वह ज्ञान है, ज्ञान का विषय हे और ज्ञान का लक्ष्य भी
है, वही सबके हृदय में विराजमान है - ज्ञानं ज्ञेयं
ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्। (वही 17) समूचा भारतीय
दर्शन इसी परमसत्ताा की आनंद अभीप्सा है।
जन्मतिथि 10 अक्टूबर पर विशेष
ऋग्वेद
और मार्क्सवाद का संगम : डा0 रामबिलास शमाZ
·
हृदयनारायण दीक्षित
विज्ञान
और अध्यात्म, प्राय: नहीं मिलते। एक प्रयोग सिध्दि का
विश्वासी है, दूसरा तर्क और अनुभूति का। प्रयोग पध्दति
हस्तांतरणीय है। अनुभूति वैयक्तिक होती है। माक्र्स और
आचार्य शंकर भी नहीं मिलते। एक प्रकृति और समाज में
द्वन्द्व देखते है, दूसरे द्वैत में अद्वैत की अनुभूति
देखते हैं। पश्चिमी दर्शन चिंतन की भूमि यूनान है। थेल्स
पाइथागोरस, सुकरात, अरस्तू और प्लेटो के अलावा जर्मनी के
हीगल जैसे चिंतको की दृष्टि और माक्र्स का भौतिकवाद विश्व
चिंतन का प्रभावी हिस्सा है। भारत में ऋग्वेद से लेकर
उपनिषद् और महाभारत, रामायण की चिंतनधारा है। गौतम का
न्याय, कणाद का वैशिषिक कपिल का सांख्य, पतंजलि का योग,
जेमिनि की पूर्व मीमांसा और वादरायण प्रणीत ब्रह्मसूत्र के
आदि शंकर भाष्य से उद्भूत अद्वैत भारत के 6 प्रमुख दर्शन
है। बौध्द और जैन दर्शन की अपनी आभा और सुरभि है। भारतीय
चिंतन और दर्शन में दिलचस्प विविधता है और आनंदकारी एकता।
लेकिन डा0 रामबिलास शर्मा अनूठे है। साधारण में अतिसाधारण।
असाधारण में अविश्वसनीय असाधारण। उनके अध्ययन अनुभूति में
ऋग्वेद के विश्वामित्र, अंगिरा और माक्र्स एक साथ उपस्थित
हैं।
डा0
शर्मा का जन्म उ0प्र0 के उन्नाव जिले में 10 अक्टूबर 1912
ई0 के दिन ऊंचगांव सानी ग्राम में हुआ। उन्होंन विश्व भाषा
विज्ञान पर आश्चर्यजनक काम किया। हिन्दी आलोचना के
शिखरपुरूष बने। दुनिया की सभ्यताओं, संस्कृतियों का अध्ययन
किया। विश्व इतिहास को नए सिरे से जांचा। कला सौंदर्य और
विज्ञान जैसे विषय भी उनकी गहन समझदारी का हिस्सा बने।
उन्होंने ऋग्वेद से लेकर सम्पूर्ण
वैदिक वाड्.मय, उपनिषद् पुराण और आयुर्वेद का सम्यक अध्ययन
किया। वे विश्व दृष्टि से सम्पन्न असाधारण व्यक्ति थे।
लेकिन भारत की धरती और संस्कृति के प्रति अनुरक्त थे।
उन्होंने आर्य आक्रमण के सिध्दांत को साम्राज्यवादी फितरत
बताया। डा0 शर्मा ने 'पश्चिम एशिया और ऋग्वेद' की
प्रस्तावना (पृष्ठ 19) में लिखा ''भारत पर आर्यो का आक्रमण
- इस मान्यता का जन्म और प्रचार एशिया में यूरोपियन
साम्राज्यवाद के विस्तार से जुड़ा हुआ है। विस्तार के समय
इस मान्यता का लक्ष्य आर्यो को द्रविड़ों से अलग करना है,
ह्नास के समय उत्तार-पश्चिमी भारत को शेष भारत से अलग करना
है।'' डा0 शर्मा ने ढेर सारे ऐतिहासिक, पुरातात्विक और भाषा
वैज्ञानिक तर्को के जरिए आर्य आक्रमण को गलत बताया।
डा0
शर्मा सुप्रतिष्ठि साहित्यकार और प्रतिष्ठित आलोचक थे।
लेकिन भारतीय दर्शन की उनकी व्याख्या में गजब का सम्मोहन
है। वे जटिल को सरल बनाते है। दुर्बोध को सुबोध बनाते है।
आधिभौतिक (Metaphysical)
को भौतिक बनाने की उनकी जादूगरी विस्मित करती है। वे आजीवन
माक्र्सवादी रहे। वृध्दावस्था में वेद पुराण, उपनिषद बोलने
लगे। डॉ शर्मा ने एक साक्षात्कार (25 सितम्बर 1999) में कहा,
''ऋग्वेद का अध्ययन मैंने एक विशेष उद्देश्य से किया था।
यूरोप के ज्यादातर दर्शन यूनान से निकले हैं और यूनानी पहले
वहां रहते थे, जहां आज तुर्की है और जिसे 'एशिया माइनर' कहा
जाता है। चौदहवीं सदी में तुर्को ने इन्हें वहां से भगाया।
तो यूरोप के दर्शन का अध्ययन करते हुए मुझे लगा कि सुकरात
और उससे भी पहले के यूनानी दार्शनिकों का परिचय उपनिषदों
के रचनाकारों से था।''
डा0
शर्मा ने तुलसीदास और कबीरदास का विश्लेषण किया। भारतीय
लोकजीवनके शिखर इन दोनो संतो/कवियों में समानताएं खोजीं।
उन्होंने साहित्य, लोक, रहस्य और गूढ़ दार्शनिक तत्वों को
माक्र्सवादी दृष्टि से जांचा। 1857 के गदर को स्वाधीनता
संग्राम बताया। वह स्वाधीनता संग्राम था भी। लेकिन कुछ लोग उसे 'सिपाही वार'/सिपाही
म्यूटिनी बता रहे थे। उन्होंने भारत की अंग्रेजी हुकूमत को
लुटेरा बताया। विदेशी पूंजीवाद और स्वदेशी पूंजी का फर्क
समझाया। ''भारत में अंग्रेजीराज और माक्र्सवाद'' नामक
किताब में उन्होंने अंग्रेजीराज के पूर्व की स्वदेशी पूंजी
की चर्चा की। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' की तमाम स्थापनाओं
को साक्ष्य बनाया। उनके मुताबिक ''अंग्रेजों ने स्वदेशी
पूंजीवादी संरचनाए नष्ट की।'' उन्हाेंने गांधी, डा0
अम्बेडकर और डा0 लोहिया के विचारकर्म का विश्लेषण किया।
तीनो को भारतीय इतिहास का शिखर पुरूष बताया, ''गांधी,
अम्बेडकर, लोहिया ये तीनों वर्तमान भारत के राजनीतिक और
सांस्कृतिक आन्दोलनों के लिए प्रासंगिक हैं। तीनों भारतीय
इतिहास के बारे में सोंचते हैं, जाति-प्रथा से टकराते हैं,
साम्राज्यवाद के प्रति अपना विशेष दृष्टिकोण अपनाते हैं और
समाज को बदलना चाहते हैं। जो लोग वर्तमान समाज व्यवस्था से
असंतुष्ट हैं, उसमें परिवर्तन चाहते हैं। गांधी जी ने
साम्राज्यवाद का विश्लेषण किया था, विदेशी पूंजी का जमकर
विरोध किया था। उन्होंने विदेशी पूंजी के बारे में जो कुछ
लिखा था, वह आज के संदर्भ में अत्यन्त प्रासंगिक है। जो
लोग विदेशी पूंजी को आमंत्रित कर रहे हैं, उन्होंने जाने
या अनजाने गांधीजी को अप्रासंगिक बना दिया है।''
डा0
शर्मा ने डा0 अम्बेडकर को ऋग्वेद, पुराण और धार्मिक
साहित्य का विद्वान बताया। उन्होंने लिखा ''डा0 अम्बेडकर
अपने समय के सबसे सुपठित व्यक्तियों में थे। संस्कृत का
धार्मिक, पौराणिक और वेद संबंधी सारा वाड्.मय उन्होंने
अनुवाद में पढ़ा था। इसे पढ़कर उन्होंने अनेक मौलिक स्थापनाएँ
लोगों के सामने रखी थीं। अधिकांश लोग, कहना चाहिए अधिकांश
इतिहास विवेचक यह मानते हैं कि आर्यो ने बाहर से आकर भारत
में ऋग्वेद की रचना की। अम्बेडकर यह सिध्दांत न मानते थे।
उन्होंने अनेक प्रमाणों से सिध्द किया कि आर्य यहीं के मूल
निवासी थे। एक धारणा यह भी प्रचारित की गई थी कि आर्यो ने
बाहर से आकर द्रविड़ों को शूद्र बनाया और वर्ण व्यवस्था के
शूद्र प्राचीन द्रविड़ों की संतान हैं। अम्बेडकर ने इस धारणा
का भी विरोध किया। (वही पृष्ठ
XI)
डा0 शर्मा ने डा0 राममनोहर लोहिया को अम्बेडकर और गांधी से
दूर बताया, ''डा0 राम मनोहर लोहिया ने जातिप्रथा पर बहुत
लिखा है। परन्तु वह अम्बेडकर के निकट नहीं हैं। गांधीजी से
भी दूर हैं। जातिप्रथा के संबंध में अम्बेडकर और गांधी
एक-दूसरे के ज्यादा नजदीक हैं। इन दोनो नेताओं ने अछूतों
पर विशेष ध्यान दिया था।'' (वही पृष्ठ
XIII)
डा0
शर्मा ने (2 खण्ड) में ऋग्वेद, उपनिषद्, और महाभारत,
रामायण के संदर्भ सम्बन्ध के हवाले गीता दर्शन आदि भारतीय
सांस्कृतिक स्रोतों की गहन समीक्षा की है। उन्होंने दर्शन
की विषयवस्तु को इहलोक से जोड़ा। दर्शन, योग और वैराग्य जैसे
गूढ़ तत्वों को आयुर्विज्ञानी चरक, नाटयशास्त्री भरतमुनि व
प्राचीन अर्थशास्त्री कौटिल्य के संदर्भो में जांचा।
स्वतंत्र चिन्तक थे। माक्र्सवाद उनका भारतीय संस्कृति
प्रेम नहीं तोड़ पाया। ऋग्वेद उपनिषद् पुराण रामायण और
महाभारत के तत्वों की प्रशंसा से उनके माक्र्सवादी साथी
नाराज हुए। लेकिन डा0 शर्मा अडिग रहे। उन्होंने हिन्दी की
पैरोकारी की। तुलसी, रामचन्द्र शुक्ल, निराला, भारतेन्दु
प्रेमचन्द्र की सेवाओं, कृतियों की प्रशंसा की। डॉ0 शर्मा
ने भाषा को संस्कृति का हिस्सा बताया, ''भाषा भी संस्कृति
का अंग है, उसके विकास का अध्ययन संस्कृति का अंग मानकर ही
किया जा सकता है। ............ भाषा का अध्ययन उसकी ध्वनि
प्रकृति, भावप्रकृति और मूल शब्द भंडार को दृष्टि में रखकर
किया जाना चाहिए (भाषा और समाज, पृष्ठ 12)
डॉ0
शर्मा ने 'भाषा और समाज' में 'राज्य भाषा-राष्ट्र भाषा' का
प्रश्न अंग्रेजी और हिन्दी की तुलना से भी जोड़ा है।
उन्होंने लिखा, ''अंग्रेजी से कुछ सीखना एक बात है,
अंग्रेजी को अपने सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यो का माध्यम
बना लेना दूसरी बात है।'' (वही, 392) परम्परा रूढ़िवाद नहीं
है। डा0 शर्मा ने 'परम्परा' की वास्तविक परिभाषा की, अपने
लेखन चिंतन में उसे निभाया भी। डा0 शर्मा ने बताया, ''परम्परा
अतीत का पुनर्जागरण नहीं है, वह अतीत से प्रगति है।'' (वही
: पृष्ठ 102) मानी बात है अतीत की अलग सत्ताा नहीं है।
वर्तमान अतीत का विस्तार है। डॉ0 शर्मा ने एक साक्षात्कार
में कहा, ''भारतीय दर्शन पर काम जरूरी है, यह काम और लोगों
को भी करना चाहिए। इसके लिए ऋग्वेद का अध्ययन जरूरी है।
इसके बिना भारतीय और यूरोपीय दर्शन का अध्ययन असंभव है।''
Article / Kruti dev font
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Article / Unicode font
ज्ञान प्राप्ति की पीड़ा का उल्लास
·
हृदयनारायण दीक्षित
भारतीय
दर्शन में 'इच्छाशून्यता' की महत्ताा है। गीता दर्शन में
आसक्ति रहित जीवन पर ही जोर है लेकिन जानने की इच्छा
भारतीय दर्शन परम्परा का सम्मानीय शिखर है। इस इच्छा की
अपनी खास पीड़ा, इस पीड़ा का भी अपना आनंद है। गीता भी ज्ञान
प्राप्ति की इच्छा पर जोर देती है। श्री कृष्ण अर्जुन को
ज्ञान प्राप्ति की तरकीब बताते हैं, ''ज्ञानियों को दण्डवत
प्रणाम करें। सेवा करें प्रश्न पूछें। तत्वदर्शी तुझे
ज्ञान देंगे।'' (गीता 4.34) बताते हैं ''सब पापियों से भी
अधिक पाप करने वाला ज्ञान की नाव पर पाप समुद्र पार कर जाता
है।'' (वही 36) फिर ज्ञान की महत्ताा बताते हैं ''न हि
ज्ञानेन सदृशं पवित्रमह विद्यते-ज्ञान की तरह पवित्र करने
वाला और कुछ नहीं है। (वही 38) ज्ञान परम शान्ति का
अधिष्ठान है। भारत के सुदूर अतीत में ही ज्ञान प्राप्ति को
श्रेष्ठतरर् कत्ताव्य जाना गया। आचार्य-शिष्य के अनूठे
रिश्ते का विकास हुआ। आचार्य को देवता जाना गया। आचार्य ने
शिष्य को पुत्र जाना। भारत की मेधा में गजब की जिज्ञासा
थी। पश्चिम का वैज्ञानिक दृष्टिकोण अभी कल की बात है।
आईंस्टीन ने इन्द्रियों से प्राप्त अनुभव को प्रत्यक्ष
बताया और कहा इसकी व्याख्या करने वाले सिध्दांत मनुष्य
बनाते हैं। वह अनुकूलन की एक श्रम साध्य प्रक्रिया है -
पूर्वानुमानित। पूरी तरह अंतिम नहीं। सदा प्रश्नों, प्रति
प्रश्नों और संशय के घेरे में रहने वाली है।'' आईंस्टीन की
प्रश्नों संशयों वाली श्रम साध्य प्रक्रिया भारत के
ऋग्वैदिक काल में भी जारी है।
वैदिक पूर्वज उल्लासधर्मा हैं, आनंदमगन हैं
लेकिन यहां सुखी और दुखी भी हैं। सबके अपने-अपने दुख हैं
और अपने-अपने सुख। सांसारिक वस्तुओं का अभाव अज्ञानी का
दुख है, तत्वज्ञान की प्यास ज्ञानी की व्यथा है। वैदिक
समाज सांसारिक समृध्दि में संतोषी है। लेकिन ज्ञान की व्यथा
गहन है। वैदिक साहित्य में सृष्टि रहस्यों को जानने की गहन
जिज्ञासा है। यहां ज्ञान प्राप्ति की व्यथा में भी उल्लास
का आनंद है। आसपास की जानकारियां आसान हैं लेकिन स्वयं का
ज्ञान विश्व दर्शन शास्त्र की भी मौलिक समस्या है। ऋग्वेद
(1.164.37) के ऋषि की पीड़ा समझने लायक है ''मैं नहीं जानता
कि मैं कैसा हूं, मैं मन से बंधा हुआ हूं, उसी के अनुसार
चलता हूं।'' ऋषि स्वसाक्षात्कार चाहता है, सो पीड़ित है।
पहले मण्डल के 105वें सूक्त के एक छोड़ सभी मन्त्रों के
अन्त में कहते हैं ''हे पृथ्वी-आकाश मेरी वेदना-पीड़ा जानो।''
ऋषि इन्द्र की स्तुति करता है लेकिन अशान्त है ''आपकी
स्तुति करने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को भी चिन्ता खा रही
है।'' लेकिन ऋषि की पीड़ा असाधारण है। कहते हैं ''चन्द्रमा
अंतरिक्ष में चलता है, सूर्य अंतरिक्ष के यात्री हैं लेकिन
आकाश की विद्युत भी आपका सही रूप नहीं जानती।'' यहां
जिज्ञासा की पीड़ा है। इच्छाएं अनंत हैं लेकिन जानने की
इच्छा ज्यादा व्यथित करती है। जानने की इच्छा से ही दर्शन
और विज्ञान का विकास हुआ है।
सूर्य
प्रत्यक्ष हैं। लेकिन सूर्य को पूरा जानने की इच्छा बहुत
बड़ी चुनौती है। वे पृथ्वी से बहुत बड़ी दूरी पर है। ऋषि की
जिज्ञासा है कि ''रात्रि के समय वे किस लोक में प्रकाश देते
हैं।'' (1.35.7) पृथ्वी सूर्य के ताप पर निर्भर है।
वैज्ञानिक मानते हैं कि सूर्य के पास ईंधन है। ऋषि जानना
चाहता है कि वह अपनी किस ऊर्जा के दम पर गतिशील रहता है।
वह नीचे पृथ्वी की तरफ झांकता है और ऊपर उत्ताान: (ऊर्ध्व)
की तरफ भी। वह कैसे टिका हुआ है? किसने देखा है? (4.13.5)
यहां जानकारी का क्षेत्र बड़ा है। सूर्य के ऊपर और नीचे
जाकर निकट से देखना असंभव है। सूर्य बिना किसी आधार के ही
टिका हुआ है। ऋषि का संकेत है कि वह समृत: - ऋत नियम के
कारण्ा ही अपनी शक्ति - स्वधया गतिशील है। यहां ऋत प्रकृति
का संविधान है। प्रकृति की सारी शक्तियां ऋत-बंधन में हैं।
इन्द्र, वरूण, अग्नि, सूर्य और सारे देवता ऋत - (संविधान)
के कारण ही शक्तिशाली हैं।
प्रकृति
सतत् विकासशील है। अंतरिक्ष और पृथ्वी एक साथ बने? या दोनों
में कोई एक पहले बना? ऋषि इस प्रश्न को लेकर भी बेचैन हैं।
जिज्ञासा है ''द्यावा पृथ्वी में कौन पहले हुआ? कौन बाद
में आया? विद्वानों में इस बात को कौन जानता है।''
(1.85.1) सम्प्रति स्टीफेन हाकिंग जैसे विश्वविख्यात
ब्रह्माण्ड विज्ञानी सृष्टि रहस्यों की खोज में संलग्न
हैं। ऋग्वेद में सृष्टि रहस्यों की अजब-गजब जिज्ञासा है।
ऋग्वेद की शानदार धारणा है कि देवता भी सृष्टि सृजन के बाद
ही अस्तित्व में आए। यहां सृष्टि सृजन के अज्ञात सृष्टा पर
संदेह है कि वह भी अपना आदि और अंत जानता है? कि नहीं जानता?
कौन कह सकता है?'' अथर्ववेद के ऋषि कौरपथि का दिलचस्प
प्रश्न है ''उस समय इन्द्र, अग्नि, सोम, त्वष्टा और धाता
किससे उत्पन्न हुए - कुत: इन्द्र: कुत: सोम कुतो
अग्निरजायत।'' (अथर्व0 11.10.8) ऋषियों के सामने भरी पूरी
सृष्टि है। अनेक देवों की मान्यताएं है। वे वैज्ञानिक
चिन्तन से सराबोर हैं। देवतंत्र सम्बंधी मान्यताएं भी उन्हें
जस की तस स्वीकार्य नहीं हैं। ज्ञान प्राप्ति की पीड़ा उन्हें
आनंद देती है। मनुष्य शरीर की रचना भी उन्हें आकर्षित करती
है। जिज्ञासा है कि सृष्टि रचनाकार ने बाल, अस्थि, नसो
मांस और मज्जा, हाथ पैर आदि को किस ढंग से किस लोक में
अनुकूल बनाया?'' (अथर्व0 11.10.11)
मनुष्य
शरीर की संरचना अद्भुत है। ऋषि की जिज्ञासा दिलचस्प है ''सृष्टा
ने किस पदार्थ से केश, स्नायु व अस्थियां बनाई? ऐसा ज्ञान
किसे है? - को मांस कुत आभरत्। (वही, 12) मनुष्य पूरी
योग्यता और युक्ति के साथ गढ़ा गया दिखाई पड़ता है। जिज्ञासु
के लिए ऐसी संरचना की ज्ञान प्राप्ति का रोचक आकर्षण है।
हम सब शरीर संरचना पर गौर नहीं करते। चिकित्सा विज्ञान
द्वारा किए गए विवेचन को ही स्वीकार करते हैं। शारीरिक
संरचना में असंख्यक कोष हैं। इन कोषों का संचालन और समूची
कार्यवाही आश्चर्यजनक है। अथर्ववेद के ऋषियों की जिज्ञासा
आश्चर्य मिश्रित है ''किसने जंघाओं घुटनो पैरों, सिर हाथ
मुख पीठ हंसली और पसलियों को आपस में मिलाया है?'' (वही,
14) प्रश्न महत्वपूर्ण है। युक्तिपूर्ण इस शरीर संरचना का
कोई तो कत्तर्ााधर्ता होना ही चाहिए। सबसे दिलचस्प जिज्ञासा
मनुष्य के रंग के बारे में है। जानना चाहते हैं कि ''किस
दिव्य शक्ति ने शरीर में रंग भरे - येनेदमद्य रोचते को
अस्मिन वर्णमाभारत्।'' (वही, 16) ज्ञान की अभीप्सा
श्रेष्ठतम आकांक्षा है।
भारत
भूमि ज्ञान अभीप्सु लोगों की पुण्यभूमि है। ज्ञान का
क्षेत्र बड़ा है। जान लिया गया 'ज्ञात' कहलाता है, न जाना
हुआ अज्ञात है। लेकिन अज्ञात की जानकारी भी ज्ञान से ही
होती है। अज्ञात की जानकारी भी ज्ञान का हिस्सा है। अज्ञान
का बोध भी बहुत बड़ा ज्ञान है। वैदिक साहित्य अज्ञान की
घोषणाओं से भरा पूरा है। अज्ञान की स्वीकृतियों में ज्ञान
की प्यास है। ज्ञान की इस अभीप्सा में अज्ञानी होने की पीड़ा
है। स्वयं के अज्ञान का बोध होना परम सौभाग्य का लक्षण है।
ज्ञानयात्रा का प्रस्थान अज्ञान के बोध से ही शुरू होता
है। अज्ञान के बोध की पीड़ा ही ज्ञान प्राप्ति की बेचैनी
बनती है और समग्र प्राण ऊर्जा, व्यक्तित्व का अणु-परमाणु
ज्ञान प्यास की अकुलाहट से भर जाता है। ज्ञान यात्री की
पीड़ा में सुख, स्वस्ति, आनंद और मस्ती के सुर छंद होते
हैं। ज्ञान यात्रा के लिए उठाया गया पहला कदम भी व्यक्ति
को ज्ञान दीप्ति से भर देता है। भगवत्ता की तरफ
निष्ठापूर्वक देखने वाला भी फौरन भक्त हो जाता है। ज्ञान
निष्ठा वाला साधारण विद्यार्थी भी आकाश नापने की
महत्वाकांक्षा के कारण परमव्योम तक जाने की उड़ान भरता है।
वैदिक ऋचाएं ऐसे सत्य अभीप्सु की कामना करती हैं, वे स्वयं
अपने मन्त्र रहस्य खोलती हैं और जीवन सत्य अनुभूति की
दिव्य गंध से लहालोट हो जाता है।
Article / Kruti dev font
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Article / Unicode font
श्रीराम जन्मभूमि विवादः मुस्लिम बंधु हिन्दुओं की भावनाएं
समझें
·
हृदयनारायण दीक्षित
रामजन्म
भूमि मसले पर न्यायालय के आदेश का बेसब्री से इंतजार है।
तरह-तरह के अनुमान हैं। केन्द्र व राज्य की सरकार ने
अतिरिक्त पुलिस बल की चर्चा व अतिरिक्त सावधानी की बातें
करके आम जनता में दहशत पैदा की है। मा0 न्यायालय भूमि के
मालिकाना विवाद पर सम्यक विचार कर रहा है। इसलिए इस विवाद
पर कोई टिप्पणी उचित नहीं होगी। लेकिन, इस पूरे मसले के
अन्य पहलू भी हैं। वस्तुत: सारा विवाद आक्रामक विदेशी
श्रेष्ठता बनाम भारत की राष्ट्रीय अस्मिता के बीच है। यहां
बाबर विदेशी आक्रामकता के प्रतीक हैं। राम और राम जन्मभूमि
राष्ट्रीय अस्मिता और स्वाभिमान की अभिव्यक्ति। राम भारतीय
आस्था हैं। विहिप, रामजन्म भूमि न्यास, भाजपा (और जनसंघ)
बहुत बाद में जन्मे, उत्तर प्रदेश विधान परिषद में 1936-37
में ही यह स्थल हिन्दुओं को ''वापिस'' देने के सवाल पर बहस
हुई थी। तत्कालीन प्रीमियर (तब मुख्यमंत्री को प्रीमियर
कहते थे) गोविन्द बल्लभ पन्त ने भी बहस में हिस्सा लिया।
भारतीय
विद्वानों की तुलना में योरोपीय विद्वानों को ज्यादा सच
मानने वाले मित्रों के लिए कुछ तथ्य उपयोगी होंगे। विलियम
फोस्टर की लंदन से प्रकाशित (1921) किताब ''अर्ली
ट्रेवेल्स इन इण्डिया सन् 1583 से 1619'' (पृष्ठ 176) में
यूरोपीय यात्री फिंच का किस्सा है। उसने राम गढ़ी के खण्डहरों
की चर्चा की कि हिन्दुओं की मान्यता है कि यहां राम ने
जन्म लिया। आस्ट्रिया के टाइफेन्थेलर सन् 1766-71 तक अवध
रहे। वे कहते हैं कि बाबर ने राम मन्दिर को ध्वस्त किया।
इसी के स्तम्भों का प्रयोग करके मस्जिद बनाई। (डिस्क्रिप्शन
हिस्ट्रिक एट ज्योग्राफिक डि एल.इण्डे, पृष्ठ 253-254)
ब्रिटिश सर्वेक्षणकर्ता (1838) मान्ट गुमरी मार्टिन के
अनुसार मस्जिद में इस्तेमाल स्तम्भ राम के महल से लिए गये।
(मार्टिन, ''हिस्ट्री एन्टीक्विटीज टोपोग्राफी एण्ड
स्टेटिस्टिक्स आफ ईस्टर्न इण्डिया खण्ड-2 पृष्ठ 335-36) ''एन्साइक्लोपीडिया
ब्रिटेनिका'' के तथ्यों पर सब विश्वास करते हैं। इसका
(15वां संस्करण 1978 खण्ड 1 पृष्ठ 693) भी सन् 1528 से
पूर्व बने एक मंदिर का हवाला है। एडवर्ड थार्नटन के अध्ययन
''गजेटियर आफ दि टेरिटरीज अंडर दि गवर्नमेंट आफ दि ईस्ट
इंण्डिया कम्पनी'' (पृष्ठ 739-40) के अनुसार बाबरी मस्जिद
पुराने हिन्दू मंदिर के 14 खम्भों से बनी। बाल्फोट के
मुताबिक ''अयोध्या की तीन मस्जिदें तीन हिन्दू मन्दिरों पर
बनीं। यह मंदिर हैं जन्म स्थान, स्वर्गद्वार तथा त्रेता का
ठाकुर'' (बाल्फोर, एनसाइक्लोपीडिया आफ इण्डिया एण्ड आफ
इस्टर्न एण्ड सदर्न एशिया पृष्ट 56) योरूप के इन विद्वानों
ने वोट लोभ के कारण ऐसे तथ्य नहीं लिखे।
पी0
कार्नेगी ''हिस्टारिकल स्केच आफ फैजाबाद विद द ओल्ड
कैपिटल्स अयोध्या एण्ड फैजाबाद'' में मंदिर की सामग्री से
बाबर द्वारा मस्जिद निर्माण का वर्णन करते हैं। (वही पृष्ठ
संख्या 5-7 व 19-21) गजेटियर आफ दि प्राविंस आफ अवध (खण्ड
1, 1877 पृष्ठ6-7) में भी यही तथ्य दुहराए गये। फैजाबाद
सेटिलमेंट रिपोर्ट (1880) भी इन्ही तथ्यों को ठीक बताती
है। कोई कह सकता है कि अंग्रेज भारत में हिन्दू-मुस्लिम
संघर्ष चाहते थें। इसीलिए उन्होंने मंदिर को गिराकर मस्जिद
बनाने की बातें लिखीं। बेशक अंग्रेज ऐसे थे भी। उन्होंने
ही मुस्लिम लोगों को बढ़ावा देकर पाकिस्तान बनवाया था।
जिन्ना मुसलमानों को अलग राष्ट्र मानते थे। वे भारत के
भीतर दो राष्ट्र देखते थे। लेकिन श्रीराम जन्मभूमि के सवाल
पर मुस्लिम विद्वानों ने भी गौरतलब टिप्पणियां की हैं।
मिर्जाजान अपनी किताब ''हदीकाए शहदा'' (1856 पृष्ठ 4-7)
में कहते हैं, ''सुलतानों ने इस्लाम के प्रचार और प्रतिष्ठा
की हौसला अफजाई की। कुफ्र (हिन्दू विचार) को कुचला।
फैजाबाद और अवध को कुफ्र से छुटकारा दिलाया। अवध राम के
पिता की राजधानी था। जिस स्थान पर मंदिर था वहां बाबर ने
एक सरबलंद (ऊंची) मस्जिद बनाई।'' हाजी मोहम्मद हसन अपनी
किताब ''जियाए अख्तर'' (लखनऊ सन् 1878 पृष्ठ 38-39) में
कहते हैं, ''अलहिजरी 923 में राजा राम चन्दर के महलसराय तथा
सीता रसोई को ध्वस्त करके दिल्ली के बादशाह के हुक्म पर
बनाई गई मस्जिद (और अन्य मस्जिदों) में दरारें पड़ गयी
थी।'' शेख मोहम्मद अजमत अली काकोरवी ने ''तारीखे अवध'' व
मुरक्काए खुसरवी (1869) में भी मंदिर की जगह मस्जिद बनाने
का किस्सा दर्ज किया। मौलवी अब्दुल करीम ने ''गुमगश्ते
हालाते अयोध्या अवध'' (1885) में बताया कि राम के जन्म
स्थान व रसोई घर की जगह बाबर ने एक अजीम मस्जिद बनवाई।
कमालुद्दीन हुसनी अल हुसैनी अल मशाहदी ने ''कैसरूल तवारीख''
(लखनऊ सन् 1896 खण्ड 2 पृष्ठ 100-112) में यही बातें कहीं।
अल्लामा मुहम्मद नजमुलगनी खान रामपुरी ने ''तारीखे अवध''
(1909 खण्ड 2 पृष्ठ 570-575) में वही सच बातें लिखीं।
इस्लामी परम्परा में अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान
मौ. अबुल हसन नदवी उर्फ अलीमियां के अब्बाजान मौ. अब्दुलहई
ने ''हिन्दुस्तान इस्लामी अहदमे'' नामक ग्रंथ अरबी में लिखा।
अली मियां ने इसका उर्दू अनुवाद (1973) किया इस किताब के
''हिन्दुस्तान की मस्जिदें'' शीर्षक अध्याय में बाबरी
मस्जिद की बाबत कहा गया कि इसका निर्माण बाबर ने अयोध्या
में किया। जिसे हिन्दू रामचन्द्र जी का जन्मस्थान कहते हैं
............. बिल्कुल उसी स्थान पर बाबर ने यह मस्जिद
बनाई।
सारी
दुनियां के हिन्दू राम जन्मभूमि पर श्रध्दा करते हैं। आस्था
लोकजीवन का विश्वास होती है। लोकविश्वास तथ्य देखता है।
तर्क उठाता है। प्रतितर्क करता है। तब आस्था जन्म लेती है।
राम जन्मभूमि के प्रति भारत की श्रध्दा है। श्रध्दालुओं को
राजनीतिक बहसें अखरती हैं। कुतर्क उन्हें आहत करते हैं।
इतिहास के विद्वान कनिंघम ''लखनऊ गजेटियर'' में लिखते हैं
''अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मंदिर तोड़े जाते समय
हिन्दुओं ने अपनी जान की बाजी लगा दी। इस लड़ाई में 1 लाख
74 हजार हिन्दुओं की लाशें गिर जाने के बाद ही मीरबकी तोपों
के जरिए मंदिर को क्षति पहुंचा सका।'' (लखनऊ गजेटियर अंक
36 पृष्ठ 3) आईने अकबरी कहती है ''अयोध्या में राम जन्मभूमि
की वापसी के लिए हिन्दुओं ने 20 हमले किये।'' औरंगजेब के
''आलमगीरनामा'' में जिक्र आया, ''मुतवातिर 4 साल तक खामोश
रहने के बाद रमजान की सातवीं तारीख को शाही फौज ने फिर
अयोध्या की जन्मभूमि पर हमला किया। 10 हजार हिन्दू मारे गये।
लड़ाई चलती रही। 1934 में भी संघर्ष हुआ। एक सैकड़ा हिन्दू
गिरफ्तार हुए।''
श्रीराम
इतिहास हैं, आस्था भी हैं। उनकी कथाएं चीन तिब्बत, जापान,
लाओस, मलयेशिया, कम्बोडिया, श्रीलंका, रूस, फिलीपीन्स, थाई
देश और दुनियां के सबसे बड़े मुस्लिम देश इण्डोनेशिया तक
गाई गयी। चीन के ''लिऊ ताओत्व किंग'' में बाल्मीकि रामायण
का कथानक है। चीन के ही 'ताओ पाओ त्वांड. किंग' में राजा
दशरथ मौजूद हैं। चीनी उपन्यासकार ऊचेंग एन की ''द मंकी
हृषि ऊची'' वस्तुत: हनुमान की कथा है। इण्डोनेशिया की 'ककविन
रामायण' थाई देश की ''राम कियेन'' और लाओस की ''फालाम'' तथा
'पोम्मचाक' जैसी रचनाएं राम को अंर्तराष्ट्रीय आधार देतीं
हैं। न्यायालय के निर्देश पर अयोध्या में उत्खनन कार्य हुआ
था। अब तक मिली चीजें मंदिर सिध्द करने को काफी हैं। सर
वी.एस. नायपाल ''मैं नहीं समझ पाता कि मंदिर निर्माण का
विरोध क्यों किया जा रहा है? विश्व भर में बुध्दिजीवियों
को बहस शुरू करनी चाहिये कि क्यों मुस्लिम समाज गैर
मुस्लिमों के साथ समानता का भाव अपनाकर नहीं रह पाता।''
समय की मांग है कि इस प्रश्न पर दोनो पक्षों में प्रीतिकर
संवाद हों। मुस्लिम बंधु हिन्दुओं की भावनाएं समझें। संसद
कानून बनाए।
Article / Kruti dev font
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भगवा
भारत का अन्तर्मन है
·
हृदयनारायण दीक्षित
भगवा
भारत का पर्यायवाची है। भा का अर्थ प्रकाश है। आभा में भा
की दीप्ति है। भाषा में भा वाणी का प्रकाश है। प्रभा में
भी भा दीप्ति वाचक है। रत का अर्थ संलग्न होता है। सो भारत
का अनुभूत अर्थ है-प्रकाश संलग्न राष्ट्रीयता। भगवा दिव्य
ज्योति अनुभूति है। दीप-प्रकाश की ज्योति का अंतर्मन त्यागी
है। दीप स्वयं जलता है, स्वयं के अंधकार की परवाह नहीं करता
लेकिन तमस्-अंधकार से लड़ता है। तमस् से लड़ते समय उसकी
ज्योति का रूप रंग भगवा हो जाता है। भारत और भगवा
ज्योतिवाची है। वैदिक ऋषि 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के
प्रार्थी थे। भगवा भारत की प्रकृति और संस्कृति है। भगवा
स्व-भाव है, भाग्य संभावना है, भगवान परम् लक्ष्य है। यहां
भगवान आस्था नहीं हैं। भगवान परम ऐश्वर्यवान अनुभूति है।
भगवा भाग्य और भगवान 'ज्योतिर्गमय अभीप्सा के ही चरण हैं।
भगवा बीज है। हरेक बीज में अनंत संभावनाएं हैं, वह भविष्य
का पौधा है, सुरभित पेड़ है, ढेर सारे फूलों से लदा फंदा
वृक्ष है। वह फिर नये बीज देने की संभावनाओं से भी लैस
हैं। बीज का परिपूर्ण वृक्ष बनना भाग्य है, सड़कर नष्ट हो
जाना, वृक्ष न बन पाना दुर्भाग्य है और चहचहाते पक्षियों
के बसेरे वाला हरा भरा, फूलों फलों से लदा वृक्ष बन जाना
सौभाग्य। भाग्य संभावना है, भगवा इस संभावना का उत्प्रेरक
है। भगवान हो जाना चरम परम अभीप्सा।
लेकिन
भारत के दुर्दिन हैं। गृहमंत्री पी0 चिदम्बरम् 'भगवा' का
मतलब नहीं जानते। वे काफी पढ़े लिखे भी हैं। उनका ताजा शोध
''भगवा आतंकवाद'' है। उन्होंने भारतीयता के पर्यायवाची भगवा
को आतंकवाद से जोड़ा है। बेशक वे दया के पात्र हैं लेकिन
क्षमा के योग्य नहीं। उन्होंने भारत की सनातन प्रज्ञा को
गाली दी है। ''भगवा'' भारत का अन्तर्मन है। अन्तर्मन का
निर्माण अनुभूति से होता है। अनुभूति का कोई रूप नहीं होता
इसीलिए चीख, पुकार, प्रीति और प्यार को देखा नहीं जा सकता।
भगवा त्यागी चित्ता का उल्लास है, अहंशून्यता का आनंद है,
शून्य से विराट हो जाने का उत्सव है। वैदिक दर्शन में
सृष्टि के सभी रूपों में एक ही सत्ताा की अनुभूति है।
कठोपनिषद् (5.9) के ऋषि ने अग्नि के बारे में कहा, ''अग्निर्यथैको
भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव - अग्नि सभी
पदार्थो के भीतर है, वही प्रत्येक रूप में प्रत्यक्ष है।
ऋग्वेद (10.36.14) के ऋषि ने यही अनुभूति सविता (सूर्य)
में पायी, ''सविता पीछे हैं, सविता सामने है, सविता ऊपर
है, 'सविता नीचे है। वे सविता हमें समृध्दि दें, दीर्घायु
दे।''वेदों को श्रुति कहा जाता है लेकिन वैदिक मन्त्रों
में सारा जोर देखने पर है। ऋषि मन्त्र देखते हैं, वे
मन्त्र द्रष्टा हैं। मन्त्र रचयिता या गायक नहीं। देखने की
अपनी शैली है, देखकर अनुभूति तक जाना आसान नही होता। लेकिन
अग्नि और सूर्य नित्यप्रति दिखाई पड़ते हैं। सो ऋषियों के
भावबोध में उनकी खासी महत्ताा है।
अग्नि
का दर्शन वैदिक ऋषियों की प्रीतिकर अनुभूति है। ऋग्वेद
अग्नि की स्तुति से ही शुरू होता है - ''अग्नि मीडे
पुरोहितं, होतार रत्न धाततम् - अग्नि पुरोहित हैं, रत्नदाता
हैं। पूर्व और वर्तमान काल के ऋषियों द्वारा प्रशंसित
है।'' (ऋ0 1.1.1) यह पूर्वकाल ऋग्वेद से भी पुराना है।
ऋग्वेद (3.7.1) में कहते हैं, ''अग्नि की ज्वालाएं उठती
हैं, वे मातृ पितृ द्यावा पृथ्वी और सात वाणियों में
प्रविष्ट हैं।'' अग्नि का देखा गया रूप ज्वाला है,
स्वाभाविक ही इसका रूप रंग भगवा है। अनुभूति में वे पृथ्वी
अंतरिक्ष तक व्यापक है लेकिन वाणी के सात सुरों में भी
अवस्थित हैं। एक बहुत बड़े देवता हैं - अदिति। वे सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड घेरते हैं। ऋषि उनके दर्शनाभिलाषी है, उनका
प्रश्न (1.24.1) है कि हम किस देव का ध्यान करें जो अदिति
का दर्शन करवा दें।'' अगले मन्त्र में उत्तार है ''हम
प्रथम देव अग्नि का ध्यान करें।'' अग्नि का ध्यान भगवा है।
वेदों में अग्निविषयक 2483 मन्त्र हैं। सिर्फ ऋग्वेद में
ही अग्नि स्तुति के 200 सूक्त हैं। अग्नि ऊर्जा हैं। अग्नि
सर्वव्यापी है, ''सबसे ऊपर द्युलोक में, फिर अंतरिक्ष में
और नीचे पृथ्वी में भी। (ऋ0 2.9.3) इसी मंत्र के अनुवाद की
टिप्पणी में ग्रिफ्थ कहते हैं, ''सबसे ऊपर यही अग्नि सूर्य
हैं, अंतरिक्ष में विद्युत है और धरती पर यज्ञ है।'' यहां
एक ही अग्नि तीन रूपों में है। तीनों का रूप रंग भगवा है।
सविता-सूर्य का ध्यान प्रात: होता है, सायं होता है। दोपहर
या रात में नहीं होता। उगता और विदा होता सूर्य भगवा है।
सूर्य उपासना प्राचीन यूनान में भी थी। प्लेटो ने 'रिपब्लिक'
में यह बात बताई है। ऋग्वेद में सविता के 10 सूक्त है
लेकिन 20 सूक्त ऊषा के हैं। ऋग्वेद में सूर्य को
ब्रह्माण्ड की आत्मा ''जगत स्तस्थुषश्रच्'' बताया गया है।
प्रश्नोपनिषद् (1.5) में कहते हैं, ''आदित्यो ह वै प्राणो।
लेकिन सूर्योदय के पहले आने वाली ऊषा के स्वागत में
क्षितिज भगवा हो जाता है। वे भग और वरूण की बहिन है (ऋ0
1.123.5) यहां भग ऐश्वर्य है और वरूण शासक।
परम-ऐश्वर्यवाची-भग की प्रतीति ही भगवा है। भगवा प्रकाश
किरणों के मूल 7 रंगो से पृथक है। यह पीला है, लाल है,
लेकिन दोनो से असम्बध्द-संन्यासी भी है। कत्तर्ाापन और
भोक्तापन का नाम संसार है। दोनो का सुख-दुख भोगते हुए
अनासक्त, असम्बध्द हो जाना भगवा है, अन्तस तल पर यही आचरण्ा
भगवद् है।
भारतीय
दर्शन में यह सृष्टि एक है, अद्वैत है, दो नही है। आधुनिक
विज्ञान ने भी प्रकृति को एक इकाई माना है। भारत ने इसे
ब्रह्माण्ड कहा, आधुनिक विज्ञान ने 'कास्मिक एग'। सम्पूर्ण
सृष्टि का एकीकृत स्वभाव सम्पूण्र्[1]ाता-टोटैलिटी
है। सम्पूर्णता अपने खेल खेलती है, इसकी इकाइयां उगती हैं,
बुझती हैं, व्यक्त होती हैं, अव्यक्त होती हैं। परम ऊर्जा
वही रहती है। सम्पूर्णता की सम्पूर्ण प्रकृति पर कोई
प्रभाव नहीं पड़ता। सम्पूण्र्[1]ा
में सम्पूर्ण का जोड़ दो सम्पूर्ण नहीं होता। सम्पूर्ण में
सम्पूर्ण घटाओ तो शून्य नहीं सम्पूर्ण ही बचता है। भारत ने
इसी सम्पूर्णता का नाम रखा भगवत्ताा। भगवत्ताा में भगवा
है, भगवा की सम्पूर्ण अनुभूति और प्रतीति ही भगवत्ताा है।
भगवत्ताा की इकाई का प्रतिफल भाग्य है। भाग्य में बेशक
कर्म फल की भावना है। लेकिन कर्मफल भी इकाई के ही श्रम का
परिणाम नहीं होता। हमारे होने, रोने सक्रिय या निष्क्रिय
होने में हमारी कोई भूमिका नहीं है। यहां सारे खेल भगवत्ताा
के ही है। विज्ञान की भाषा में कहे तो सम्पूर्णता के।
भगवत्ताा/सम्पूर्णता का खेल ही भाग्य या दुर्भाग्य रचता
है। पी0 चिदम्बरम दुर्भाग्यशाली हैं। उन्हें भगवा और
भगवत्ताा की सामान्य समझ भी नहीं है। स्वराष्ट्र की अनुभूति
और सहज प्रतीकों का अज्ञान दुर्भाग्यशाली को ही नसीब होता
है।
चिदम्बरम् ने हाल ही में सफाई दी है कि भगवा शब्द का
प्रयोग शिक्षा के हिन्दूकरण को लेकर पहले भी हो चुका है कि
वे भगवा उनका अपना पेटेन्ट शब्द नहीं है। बिल्कुल ठीक कहा
है। भगवाकरण का प्रयोग भारतीय संस्कृति विरोधी तत्वों ने
शिक्षा के लिए किया था, इतिहास के पाठयक्रमों के लिए भी
किया था। लेकिन चिदम्बरम् इसके पहले के भगवा इतिहास पर गौर
नहीं करते। संविधान निर्माता राष्ट्रीय ध्वज को भी भगवा
ध्वज बनाना चाहते थे। महाभारत युध्द में अर्जुन के रथ पर
यही भगवा ध्वज था। श्रीराम की सेना भी इसी ध्वज को प्यार
करती थी। कांग्रेसियों से अच्छे तो अंग्रेज थे। उन्होंने
शासन के लिए ही भारतीय दर्शन, वैदिक संस्कृति और भारतीय
प्रतीकों का गहन अध्ययन किया था। चिदम्बरम् का इतिहासबोध
बड़ा चिरकुट है। वे भगवा शब्द के अध्ययन को 5 बरस से पीछे
ले ही नहीं जाते। उन्होंने वित्तामंत्री रहते हुए भारत को
सोने की चिड़िया या दूध दही की नदियों वाला देश बताने वाली
इतिहास की पुस्तकों को जलाने का भी उपदेश दिया था। वे दया
के पात्र हैं, वे नक्सलपंथी हिंसा नहीं देखते, वे जिहादी
आतंकवाद से मुंह छुपाते हैं। लेकिन हिन्दूमन को आतंकवादी
बताते हैं। काश यहां थोड़ा सा भी भगवा आतंकवाद होता तो न
कश्मीरी पंडित शरणार्थी होते, न बांग्लादेशी घुसपैठ होती।
न मुम्बई बमकाण्ड होता, न अक्षरधाम होता, न आई0एस0आई0 होती
और न चिदम्बरम् ऐसा बकवास करते। सुमंगल है कि भगवा में
त्याग है, आतंकवाद नहीं। इसी त्यागमय प्रतीक भगवा में भारत
का भविष्य है। (उप्रससे) ।
Article / Kruti dev font
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हृदयनारायण दीक्षित
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लेखक, विचारक एवं चिंतक,सदस्य विधान
परिषद् उत्तर प्रदेश।
Hraydai Narayan Dixit,
Writer, Columnist & Auther, Member,
U.P.Lagisletive Council
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