देहरादून।13
जुलाई भाजपा के लिए बड़े हादसे का दिन रहा जब अमित शाह
को गुवाहाटी में पहले नार्थ - ईस्ट डेमोक्रेटिक एलांयस
सम्मेलन के दौरान सुप्रीम कोर्ट द्वारा भाजपा समर्थित
अरुणाचल प्रदेश सरकार को अपदस्थ करने और असंवैधानिक
राजनीतिक कवायद का निर्णय सुनने को मिला। सुप्रीम कोर्ट
ने केंद्र के फैसले को पलट कर कांग्रेस की नबाम तुकी
सरकार को 15 दिसम्बर 15 की जस -तस स्थिति में पुनः बहाल
कर दिया।
भाजपा की कांग्रेस मुक्त करने की कवायद को यह एक बड़ा
झटका लगा है। मात्र 11 विधायकों वाली भाजपा का अरुणाचल
विधानसभा में कांग्रेसी बागियों की सरकार के समर्थन में
खड़ा होना पूर्णतया अनैतिक काम था। 60 सदस्यों वाली
अरुणाचल विधानसभा में कांग्रेस के 45, भाजपा के 11,
निर्दलीय 2 और 2 स्थान रिक्त हैं।
राज्यपाल ने कांग्रेस की सरकार को बर्खास्त करके बागियों
की सरकार बनाने में संविधान का पालन नही किया और भाजपा
अब कांग्रेस के बागी धड़े का समर्थन करने के बाद अपने को
दोष मुक्त बता रही है। संविधान पीठ के सर्व सम्मत निर्णय
ने राज्यपाल को विधानसभा कार्यवाही को अपनी मर्जी से
चलाने पर अंकुश लगाया है। उल्लेखनीय है कि अरुणाचल में
पाला बदलने के खेल में पहले तो दल - बदल कानून की धज्जियां
उड़ी। संविधान नये दल को तभी मान्यता देता है जब दो -
तिहाई सदस्यों ने नया दल बनाया हो। अन्यथा उन्हें अपनी
सदस्यता से हाथ धोना सुनिश्चित है।
हिमालयी राज्यों में भाजपा की रीति
- नीति जन भावना से दूर !
पूर्वोत्तर असम में पहली बार भाजपा सरकार का बनना
निसंदेह बड़ी उपलबिध है। समस्या अब यह है कि भाजपा के
खेमे में कांग्रेस और अन्य दलों से आये विधायकों की
संख्या बहुत है। भाजपा या संघ के संस्कारों से दूर रहे
इन नेताओं को सत्ता के साथ तो बांधा जा सकता है लेकिन
कितने दिन ये दल - बदलू भाजपा में रहेंगे कहना मुश्किल
है।
भाजपा का अरुणाचल में सत्ता का प्रयोग छह माह में ही
धरासायी हो गया। बागी कांग्रेस के भाजपा समर्थित
मुख्यमंत्री कलिखो पुल के अलावा कोई भाजपा में शामिल होने
को तैयार नही था और अंत में नये मुख्यमंत्री पेमा खांडू
के समर्थन करने में भाजपा समर्थित मुख्ष्मंत्री ने भी जरा
देर नही लगायी और आज पूरे 45 विधायक फिर से कांग्रेस के
पाले में खड़े हो गये हैं।
येन - केन सत्ता पाने के चक्कर
में साख दाव पर और कार्यकर्त्ता निराश !
जो कुछ अरुणाचल प्रदेश में घटा कमोबेश कांग्रेस मुक्त
सरकार बनाने का सियासी दॉव उत्तराखंड में भाजपा पर उलटा
पड़ा है। जिन नेताओं के भ्रष्टाचार के मामले भाजपा गिनाया
करती थी अब उन्हीं नेताओं की राजनीति मजबूत करने में
भाजपा के केंद्रीय नेता और क्षत्रप लगे हैं। जिन नेताओं
पर मेडिकल एडमिशन में चांदी काटने के आरोप लगे और पैसे
के लेन - देन में नेता के सहायक की हत्या तक हुई और हत्या
आरोपियों से संबंध रखने के आरोप जिन कांग्रेस नेताओं पर
लगे है। अब वो भाजपा में शामिल हैं । ऐसे नेताओं ने भाजपा
का दामन अपने को सीबीआई के चंगुल से बचाने के लिए पकड़ा
है।
आज सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल
हुए विधायकों को राहत देने से तब इंकार कर दिया - जब ये
लोग विधानसभा कार्यवाही में भाग लेने के लिए सुप्रीम
कोर्ट से गुहार लगाने गए। इस से पहले भाजपा ने राज्यसभा
चुनाव के लिए अपने प्रत्याशी को उतार कर दूसरी बार
विधानसभा में हार का मुंह देखा है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष
अजय भट्ट का कहना है कि जरुरत पड़ने पर विधानसभा में फिर
से अविश्वास प्रस्ताव लाया जायेगा। जबकि छह माह की अवधि
से पहले बार - बार अविश्वास मत की व्यवस्था नही होती है।
दूसरी ओर मुख्यमंत्री हरीश रावत आत्म विश्वास से लवरेज
चौथी विधानसभा की तैयारी में जुटे हैं। भाजपा की आलोचना
का कोई मुद्दा अपने हाथ से नही जाने देते और कांग्रेस के
दागी - बागी और अब भाजपा के नये नेता देहरादून में अपने
लिए पोस्टर - बैनर लगाये हुए हैं कि - भाजपा में आ गया
हरक , पड़ गया फर्क। यह तो अगले छह माह में होने वाले
चुनाव में पता चलेगा कि भाजपा को इन नेताओं को ढोने से
कितना फर्क पड़ा है। हां, राजनीति के जानकार मानते हैं
कि हरीश रावत तो आज उत्तराखंड में चुनाव करा दें लेकिन
कंेद्र की भाजपा सरकार तय समय पर ही चुनाव करायेगी ताकि
हरीश रावत सहानुभूति की लहर ना बटोर ले जाये। ,