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Chidarpita, B.P.Gautam Journalist Badaun,
Mumuksha Ashram Shahjahanpur, Swami
Chinmayanand Saraswati, साध्वी चिदर्पिता,
बी.पी.गौतम पत्रकार बदायुं, मुमुक्ष आश्रम
शाहजहांपुर, स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वती |
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मुमुक्ष
आश्रम शाहजहांपुर की कर्ताधर्ता और स्वामी
चिन्मयानन्द सरस्वती की शिष्या रहीं साध्वी
चिदर्पिता ने गत नवरात्र में बदायूं के
पत्रकार बी.पी.गौतम के साथ विवाह कर लिया।
इसके पहले साध्वी के शाहजहांपुर से गायब
होने के सामचार प्रकाशित हुए। तरह तरह की
चर्चाएँ हुईं। सब चर्चाओँ और अटकलों को
विराम देने के लिए साध्वी चिदर्पिता ने
विवाह की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति की है।
उन्होंने विवाह के निर्णय तथा इसकी
परिस्थितियों, कारणों का विस्तृत विवरण
अपने ब्लाग पर प्रकाशित किया है। ब्लाग
में उन्होंने अपने प्रणय प्रवेश की कहानी
को अपनी जुबानी प्रस्तुत किया है। साध्वी
चिदर्पिता के इस साहस पूर्ण वक्तव्य को यहां
उनके ब्लाग मेरी जमीं मेरा आसमां से साभार
लेकर प्रकाशित किया जा रहा है। और साथी ही
चिदर्पिता-बी.पी.गौतम को विवाह की ढेरों
बधाई। सम्पादक, यूपी वेब न्यूज
विवाह का निर्णय क्यों?
बचपन से ही ईश्वर में अटूट आस्था
थी...माँ के साथ लगभग रोज़ शाम को मंदिर
जाती थी...बाद में अकेले भी जाना शुरू कर
दिया...जल का लोटा लेकर सुबह स्कूल जाने
के पहले मेरा मंदिर जाना आज भी कुछ को याद
है...दक्षिणी दिल्ली के कुछ-कुछ अमेरिका
जैसे माहौल में भी सोमवार के व्रत रखती...इसी
बीच माँ की सहेली ने हरिद्वार में भागवत
कथा का आयोजन किया और मुझे माँ के साथ जाने
का अवसर मिला...उसी समय स्वामी
चिन्मयानन्द सरस्वती जी से परिचय हुआ...वे
उस समय जौनपुर से सांसद थे...मेरी उम्र
लगभग बीस वर्ष थी...घर में सबसे छोटी और
लाडली होने के कारण कुछ ज्यादा ही बचपना
था...फिर भी ज्ञान को परखने लायक समझ दी
थी ईश्वर ने...स्वामी जी की सामाजिक और
आध्यात्मिक सूझ ने मुझे प्रभावित किया...मेरे
पितृ विहीन जीवन में उनका स्नेह भी
महत्वपूर्ण कारण रहा जिसने मुझे उनसे जोड़ा...उन्हें
भी मुझमें अपार संभावनाएं दिखाई दीं...उन्होंने
कहा कि तुम वो बीज हो जो विशाल वटवृक्ष बन
सकता है...वे मुझे सन्यास के लिये मानसिक
रूप से तैयार करने लगे...कहा कि ईश्वर को
पाने का सबसे उचित मार्ग यही है कि तुम
सन्यास ले लो...लड़की होकर किसी और नाते से
तुम इस जीवन में रह भी नहीं पाओगी...यह सब
बातें मन पर प्रभाव छोड़तीं रहीं...मेरी
ईश्वर में प्रगाढ़ आस्था देखकर वे आश्रम
में आयोजित होने वाले अधिकांश अनुष्ठानों
में मुझे बैठाते...धीरे-धीरे आध्यात्मिक
रूचि बढ़ती गयी और एक समय आया जब लगा कि यही
मेरा जीवन है...मैं इसके सिवा कुछ और कर
ही नहीं सकती...स्वामी जी से मैंने कहा कि
अब मैं सन्यास के लिये मानसिक रूप से पूरी
तरह तैयार हूँ...आप मुझे दीक्षा दे दीजिये...उन्होंने
कहा पहले सन्यास पूर्व दीक्षा होगी, उसके
कुछ समय बाद संन्यास होगा....२००२ में मेरी
सन्यास पूर्व दीक्षा हुई और मुझे नाम दिया
गया – साध्वी चिदर्पिता...अब पूजा-पाठ,
जप-तप कुछ अधिक बढ़ गया...नित्य गंगा स्नान
और फिर कोई न कोई अनुष्ठान...स्वाध्याय और
आश्रम में चलने वाले कथा-प्रवचन....इसी
बीच स्वामी जी ने आदेश दिया कि तुम
शाहजहांपुर स्थित मुमुक्षु आश्रम में रहो....
तुम आगे की पढ़ाई करने के साथ ही वहाँ मेरी
आँख बनकर रहना...कुछ समय वहाँ बिताने के
बाद मैं उनकी आँख ही नहीं हाथ भी बन गयी...मुमुक्षु
आश्रम का इतना अभिन्न भाग बन गयी कि लोग
आश्रम को मुझसे और मुझे आश्रम से जानने लगे....इस
बीच वहाँ महती विकास कार्य हुए जिनका
श्रेय मेरे कुछ खास किये बिना ही मुझे दे
दिया जाता...अब स्वामी शुकदेवानंद पी जी
कॉलेज और उसके साथ के अन्य शिक्षण संस्थानों
का बरेली मंडल में नाम था...आश्रम की
व्यवस्था और रमणीयता की प्रशंसा सुनने की
मानो आदत सी हो गयी थी..दूसरे लोगों के
साथ स्वामीजी को भी लगने लगा कि इस सब में
मेरा ही सहयोग है...अब उनके लिये मुझे
आश्रम से अलग करके देखना असंभव सा हो गया...इतना
असंभव कि प्रमुख स्नान पर्वों पर भी मेरा
शाहजहाँपुर छोड़कर हरिद्वार जाना बंद कर
दिया गया...गंगा की बेटी के लिये यह कम
दुखदायी नहीं था पर कर्तव्य ने मुझे संबल
दिया....इन वर्षों में जाने कितनी बार
मैंने अपने संन्यास की चर्चा की...उन्होंने
हर बार उसे अगले साल पर टाल दिया...आखिर
में उन्होंने संन्यास दीक्षा को हरिद्वार
के कुम्भ तक टाल कर कुछ लंबी राहत ली...मैंने
धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की....कुम्भ भी बीत
गया...मेरी बेचैनी बढ़ने लगी...बेचैनी का
कारण मेरा बढ़ा हुआ अनुभव भी था...इस जीवन
को पास से देखने और ज्ञानियों के संपर्क
में रहने के कारण मैं जान गयी थी कि
स्वामीजी सरस्वती संप्रदाय से हैं और
शंकराचार्य परंपरा में महिलाओं का संन्यास
वर्जित है...जो वर्जित है वो कैसे होगा और
वर्जित को करना किस प्रकार श्रेयस्कर होगा
मैं समझ नहीं पा रही थी...मैंने सदा से ही
शास्त्रों, परम्पराओं और संस्कृति का आदर
किया था....इस सबको भूलकर, गुरु आदेश पर
किसी प्रकार से संन्यास ले भी लेती तो भी
शास्त्रोक्त न होने के कारण स्वयं की ही
उसमें सम्पूर्ण आस्था नहीं बन पाती...साथ
ही देश के पूज्य सन्यासी चाहकर भी मुझे कभी
मान्यता नहीं दे पाते....और फिर उस मान्यता
को मैं माँगती भी किस अधिकार से?...खुद
शास्त्र विमुख होकर उनसे कहती कि आप भी वही
कीजिये? इन्ही सब बातों पर गहन विचार कर
मैंने साहसपूर्वक स्वामी जी से कहा कि आप
शायद मुझे कभी संन्यास नहीं दे पायेंगे....अपने
मन में चल रहे मंथन को भी आधार सहित बताया,
जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि परम्पराएँ
और वर्जनाएं कभी तो तोड़ी ही जाती हैं...हो
सकता है यह तुमसे ही शुरू हो...संन्यास
देना मेरा काम है....इसके लिये जिसे जो
समझाना होगा वह मैं समझाऊंगा...तुम परेशान
मत हो...यह कह कर उन्होंने अगली तिथि
इलाहबाद कुम्भ की दी...यह बात होने के बाद
हरिद्वार में रूद्र यज्ञ का आयोजन हुआ...स्वामीजी
ने मुझे तैयार होकर यज्ञ में जाने को कहा...मैं
गयी...शास्त्रीय परम्परा को निष्ठा से
निभाने वाले आचार्य ने मुझे यज्ञ में बैठने
की अनुमति नहीं दी, जबकि वे मेरा बहुत
सम्मान करते थे..स्वामीजी को पता चला तो
उन्होंने आचार्य से कहा कि वो तो शुरु से
सारे ही अनुष्ठान करती रही है...पर वे न
माने और स्वामीजी चुप हो गये...उनकी उस
चुप्पी पर मैं स्तब्ध थी...सन्यासी आचार्य
से अधिक ज्ञानी होता है...मैंने अपेक्षा
की थी कि स्वामीजी अपने ज्ञान से तर्क
देकर उन्हें अपनी बात मनवाएंगे....पर ऐसा
नहीं हुआ...अब मेरा विश्वास डिग गया और लगा
कि आचार्य को न समझा पाने वाले अखाड़ों के
समूह को क्या समझा पायेंगे....यज्ञशाला से
लौटकर स्वामीजी ने मेरी व्यथा दूर करने को
सांत्वना देते हुए कहा कि दोबारा इन्हें
फिर कभी नहीं बुलाएँगे....पर इससे क्या
होता...आचार्य ने तो शास्त्रोक्त बात ही
की थी...उन्होंने जो पढ़ा, वही कह दिया...अब
मैं सच में दुखी थी...मुझे समझ में आ गया
था कि इलाहबाद कुम्भ भी यूँ ही बीत जायेगा...मेरे
संन्यास के निर्णय पर माँ के आँसू,
भाई-भाभी के स्तब्ध चेहरे आँखों के आगे
घूम गये...लगा, मानो यह धोखा मेरे साथ नहीं,
मेरे परिवार के साथ हुआ...ग्यारह साल का
जीवन आज शून्य हो गया था...उसी दौरान मैं
गौतम जी के संपर्क में आयी...उस समय
उन्होंने प्रकट नहीं किया पर उनके ह्रदय
में मेरे प्रति प्रेम था...बिना बताये ही
मानो वे मेरे जीवन की एक-एक घटना जानते
थे...उन्होंने बिना किसी संकोच के कहा -
आप चुनाव लड़िए....मेरा सवाल था कि चुनाव
और संन्यास का क्या सम्बन्ध...तब उन्होंने
समझाया कि आपकी सोच आध्यात्मिक है...आप जहाँ
भी रहेंगी यह बनी रहेगी और यह आपके हर काम
में दिखेगी...मेरा विश्वास है कि आपके जैसे
लोग राजनीति में आयें तो भारत का उद्धार
हो जायेगा...सन्यास नहीं दे सकते तो कोई
बात नहीं, आप स्वामीजी से अपनी चुनाव लड़ने
की इच्छा प्रकट कीजिये...क्षेत्र वगरैह भी
उन्होंने ही चुना...पर, यह इतना आसान नहीं
था...अभी जिंदगी के बहुत से रंग देखने बाकी
थे.... मेरे मुँह से यह इच्छा सुनते ही
बाबा (स्वामीजी) बजाय मेरा उत्साह बढ़ाने
के फट पड़े...उनके उस रूप को देख कर मैं
स्तब्ध थी...उस समय हमारी जो बात हुई उसका
निचोड़ यह निकला कि उन्होंने कभी मेरे लिये
कुछ सोचा ही नहीं... उनकी यही अपेक्षा थी
कि मैं गृहिणी न होकर भी गृहिणी की ही तरह
आश्रम की देखभाल करूँ....आगंतुकों के
भोजन-पानी की व्यवस्था करूँ और उनकी सेवा
करूँ....आश्रम में या शहर में मेरी जो भी
जगह थी, ख्याति थी वो ईश्वर की कृपा ही
थी...ईश्वरीय लौ को छिपाना उनके लिये संभव
नहीं हो पाया था....इस लिहाज़ से जो हो रहा
था वही उनके लिये बहुत से अधिक था... तिस
पर चुनाव लड़ने की इच्छा ने उन्हें परेशान
कर दिया...उन्होंने मना किया, मैं नहीं
मानी...उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारी टिकट
के लिये किसी से नहीं कहूँगा...पैसे से
कोई मदद नहीं करूँगा, तुम्हारी किसी सभा
में नहीं जाऊंगा, यहाँ तक कि मेरी गाड़ी से
तुम कहीं नहीं जाओगी....जहाँ जाना को बस
से जाना...मैंने कहा ठीक है...इस पर वे और
परेशान हो गये और उन्होंने अपना निर्णय
दिया कि यदि तुम्हें चुनाव लड़ना है तो
दोपहर तक आश्रम छोड़ दो....मैंने उनकी बात
मानी...मेरा आश्रम छोड़कर जाना वहाँ के लिये
बड़ी घटना थी...दोपहर तक शहर के संभ्रांत
लोगों का वहाँ जुटना शुरू हो गया...स्वामीजी
के सामने ही वे कह रहे थे कि यदि आज आश्रम
जाना जाता है तो आपकी वजह से, आपके जाने
के बाद यह वापस फिर उसी स्थिति में पहुँच
जायेगा...आप मत जाइये....स्वामीजी ने जाने
को कहा है तो क्या, आपने आश्रम को बहुत
दिया है, इस आश्रम पर जितना अधिकार
स्वामीजी का है उतना ही आपका भी है....और
भी न जाने क्या-क्या...स्वामीजी यह सब
सुनकर सिर झुकाए बैठे थे...मुँह पर कही इन
बातों का खंडन करना भी तो उनकी गरिमा के
अनुरूप नहीं था...मेरे स्वाभिमान ने इनमें
से किसी बात का असर मुझ पर नहीं होने दिया
और मैं आश्रम छोड़कर आ गयी....शून्य से
जीवन शुरू करना था पर कोई चिंता नहीं
थी...एक मजबूत कंधा मेरे साथ था...श्राद्ध
पक्ष खत्म होने तक मैं गौतम जी के परिवार
के साथ रही जहाँ मुझे भरपूर स्नेह मिला...नवरात्र
शुरू होते ही हमने विवाह कर लिया...
विवाह के बाद हज़ारों बधाइयाँ हमारा
विश्वास बढ़ा रहीं थीं कि हमने सही कदम
उठाया...विरोध का कहीं दूर तक कोई स्वर नहीं...शत्रु-मित्र
सब एक स्वर से इस निर्णय की प्रशंसा कर रहे
थे...केवल कुछ लोगों ने दबी ज़बान से कहा
कि विवाह कर लिया तो साध्वी क्यों..?
साध्वी क्यों नहीं...रामकृष्ण परमहंस
विवाहित थे, उन्होंने न सिर्फ अपना जीवन
ईश्वर निष्ठा में बिताया बल्कि नरेंद्र को
संन्यास दीक्षा भी दी...ऐसे न जाने कितने
और उदाहरण हैं जिनका उल्लेख इस आलेख को
लंबा करके मूल विषय से भटका देगा....इसके
अलावा केवल शंकराचार्य परंपरा में
अविवाहित रहने का नियम है...और उसमें
महिलाओं की दीक्षा वर्जित है...तो मुझ पर
तो अविवाहित रहने की बंदिश कभी भी नहीं
थी...सन्यासी का स्त्रैण शब्द साध्वी नहीं
है...यह साधु का स्त्रैण शब्द है....वह
व्यक्ति जो स्वयं को साधता है साधु है,
साध्वी है...यदि साध्वी होने का अर्थ
ब्रह्मचर्य है तो बहुत कम लोग होंगे जो इस
नियम का पालन कर रहे हैं...इस प्रकार के
अघोषित सम्बन्ध को जीने वाले और वैदिक रीति
से विवाहित होते हुए सम्बन्ध में जीने वालों
में से कौन श्रेष्ठ है और कौन अधिक साधु
है इसका निर्णय कोई मुश्किल काम नहीं...इसके
अलावा धर्म, आस्था या आध्यात्म को जीने के
लिये विवाहित या अविवाहित रहने जैसी कोई
शर्त नहीं है...जिसे जो राह ठीक लगती है
वह उसी पर चलकर ईश्वर को पा लेता है यदि
विश्वास दृढ़ हो तो...बस अन्तःकरण पवित्र
होना चाहिये...
ऊपर लिखे घटनाक्रम को यदि देखें तो यह
विवाह मज़बूरी लगेगा पर ईश्वर साक्षी है कि
ऐसा बिलकुल नहीं था...दोनों के ही ह्रदय
में प्रेम की गंगा बह रही थी पर दोनों ही
मर्यादा को निष्ठा से निभाने वाले थे...सारा
जीवन उस प्रेम को ह्रदय में रखकर काट देते
परन्तु मर्यादा भंग न करते....मैंने पूरा
जीवन ‘इस पार या उस पार‘ को मानते हुए
बिताया...बीच की स्थिति कभी समझ ही नहीं
आयी....जब तक संन्यास की उम्मीद थी तब तक
विवाह मन में नहीं आया...दिल्ली का जीवन
जीने के बाद मैं शाहजहांपुर जैसे शहर में
और वो भी ५३ एकड में फैले आश्रम में
नितांत अकेले कैसे रह लेती हूँ यह लोगों
के लिये आश्चर्य का विषय था...पर मेरी
निष्ठा ने मुझे कभी इस ओर सोचने का अवसर
नहीं दिया....जब संन्यास की उम्मीद समाप्त
हो गयी तो त्रिशंकु का जीवन जीने का मेरी
जैसी लड़की के लिये कोई औचित्य नहीं बचा
था...साहस था और परम्परा में विश्वास था,
उसी कारण वैदिक रीति से विवाह किया और
ईमानदारी से उसकी सार्वजनिक घोषणा की...मैंने
इस विवाह को ईश्वरीय आदेश माना है...मुझे
गर्व है कि मुझे ऐसे पति मिले जो बहुत से
सन्यासियों से बढ़ कर आध्यात्मिक हैं,
सात्विक हैं, और सच्चे हैं....क्षत्रिय
होते हुए भी भी मांस-मदिरा से दूर रहते
हैं....उदारमना होते हुए भी मेरे मान के
लिये सारी उदारता का त्याग करने को तत्पर
रहने वाले वे भारतीयता के आदर्श हैं....ये
उन्हीं के बस का था जो मुझे उस जीवन से
निकाल ले आये वरना इतना साहस शायद मैं कभी
न कर पाती और यह संभावनाओं का बीज वहीँ सड
जाता...हरिः ओम्! |