-अनिल
सौमित्र-
भोपाल। देश नाजुक दौर से गुजर रहा है।
सिर्फ भ्रष्टाचार ही नहीं, सांप्रदायिकता
भी एक बड़ी समस्या के तौर पर परेशानी का
सबब है। सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां भी देश
के सामने मुंह बाए खड़ी हैं। दुनिया के सबसे
बड़े सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के लिए यह स्थिति अवसर भी
है और चुनौती भी। लेकिन क्या संघ की
स्थिति ऐसी है कि वह इन चुनैतियों को अवसर
में तब्दील कर पाए। संघ के लिए यह सिद्ध
करना भी कठिन हो गया है कि वह समाज का
संगठन है, न कि समाज में संगठन है। सन्
1925 में शुरु हुआ संघ आज राष्ट्र-जीवन के
सभी क्षेत्रों में प्रभावी है। धर्म, अर्थ,
राजनीति, कृषि, मजदूर आदि क्षेत्रों में
संघ का व्यापक हस्तक्षेप जाहिर है। लेकिन
यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या देश के
सामने खड़ी चुनौतियों के लिए संघ की शक्ति
निर्णायक है? अमरनाथ श्राईन बोर्ड मामले
में आम जनता का आंदोलन और भ्रष्टाचार के
खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन ने संघ को
सोचने पर मजबूर कर दिया है। क्या कारण है
कि पिछले कई वर्षों से अयोध्या-मंदिर जैसा
आंदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा। संघ उन कारणों
की पड़ताल करना चाहता है कि उसके संगठन किसी
भी मुद्दे पर जन-आंदोलन क्यों नहीं खड़ा कर
पा रहे। सभी क्षेत्रों में बड़े-बड़े संगठन
विकसित करने के बावजूद ये संगठन आमजनता का
संगठन क्यों नहीं बन पा रहे हैं। तमाम
समविचारी संगठन जननेता क्यों नहीं पैदा कर
पा रहे।
समविचारी संगठनों के आपसी हित न टकराएं यह
भी जरूरी है। पिछले दिनों भारतीय किसान
संघ और भारतीय जनता पार्टी, भारतीय मजदूर
संघ और लघु उद्योग भारती तथा भाजपा सरकार
से स्वदेशी जागरण मंच और अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद् के हितों का टकराव
बार-बार सामने आता रहा है। संघ के लिए उसके
समविचारी संगठनों में चेहरा, चाल और
चरित्र की चिंता भी स्वाभाविक है। संघ के
वरिष्ठ अधिकारी और सरसंघचालक रहे बाला
साहब देवरस कई बार अपने बौद्धिकों में यह
बताते थे कि फिसलकर गिरने की संभावना कहीं
भी हो सकती है, लेकिन बाथरूम में यह अधिक
रहती है। राजनीति का क्षेत्र बाथरूम के
समान ही फिसलनवाला हो गया है। वहां अधिक
लोग फिसलकर गिरते हैं। इसलिए वहां कार्य
करने वाले स्वयंसेवकों को स्वयं न फिसलने
की अधिक दृढ़ता रखनी चाहिए। जहां सत्ता है,
धन है, प्रभुता है वहां-वहां फिसलने की
संभावना अधिक होती है। संघ को पता है कि
समय के साथ फिसलन वाले क्षेत्र का लगातार
विस्तार हो रहा है। सिर्फ भाजपा ही नहीं,
कई और संगठनों में सत्ता, धन और प्रभुता
बढ़ी है। इसलिए कार्यकर्ताओं में सावधानी
पहले से ज्यादा जरूरी हो गई है। संघ और
संघ से इतर संगठनों में स्वयंसेवक का
स्वयंसेवकत्व स्थिर रखना भी चुनौतीपूर्ण
है। इसके लिए जो तंत्र विकसित किया गया है
उसके सतत अभ्यास के लिए संघ का जोर है। यह
समन्वय बैठक इस अभ्यास प्रक्रिया को पुख्ता
करता है।
यह आम धारणा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ कई संगठनों का पितृ या मातृ संगठन है।
इन संगठनों के विस्तार के साथ-साथ इनके
गुणात्मक विकास की जिम्मेदारी भी अंततः
आरएसएस की ही है। हितों के आपसी टकराव की
स्थिति में संगठनों के साथ बीच-बचाव का
काम भी संघ का ही है। संघ यह सब काम बखूबी
करता भी रहा है। संघ लाखों स्वयंसेवकों,
हजारों कार्यकर्ताओं, सैंकड़ों प्रचारकों
और दर्जनों संगठनों के बीच व्यक्तित्व
निर्माण से लेकर उनके बीच समन्वय का काम
वर्षों से करता रहा है। उज्जैन में हुई
पांच दिवसीय बैठक संघ की समन्वय बैठक
अर्थात् समविचारी संगठनों की बैठक थी। यह
संघ की प्रतिनिधि-सभा बैठक और
कार्यकारी-मंडल बैठक से सर्वथा भिन्न थी।
कयासबाज इस बैठक से कई कयास निकालेंगे।
लेकिन संघ को निकट से जानने वाले जानते
हैं कि संघ ऐसी बड़ी बैठकों में व्यक्ति के
बारे में नहीं विषयों के बारे में चर्चा
करता है। इतना तो पक्का है कि संघ ने इस
समन्वय बैठक में न तो किसी पदाधिकारी के
दायित्वों में किसी भी फेरबदल के बारे में
चर्चा की होगी और न ही गुजरात के
मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री
उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने की
कोई रणनीति बनाई होगी। इसीलिए मीडिया के
कयासों पर संघ ने न तो कोई टिप्पणी की और
न ही खबरों का खंडन किया।
इस समन्वय बैठक के औपचारिक समापन के बाद
आरएसएस के सरकार्यवाह सुरेश जोशी और
प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने पत्रकारों
से चर्चा में साफ-साफ कहा कि एक ही
उद्देष्य से प्रेरित राष्ट्र एवं समाज
जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत
संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता 3-4 वर्षों के
अंतराल से परस्पर अनुभवों का आदान-प्रदान
और विचार-विमर्ष के उद्देष्य से एकत्रित
होते हैं। उज्जैन में यह समन्वय बैठक 17
से 19 अगस्त तक संपन्न हुई है, जिसमें
विभिन्न पहलुओं पर विचार हुआ है। वर्तमान
सामाजिक परिस्थिति पर भी चिंतन हुआ है।
संघ ने परंपरानुसार मुद्दों और संगठनात्मक
विषयों पर चर्चा की। देश की
राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के
मद्देनजर भ्रष्टाचार, कालाधन, सांप्रदायिक
एवं लक्षित हिंसा विधेयक प्रमुख मुद्दों
के रूप में चिन्हित हुआ। इन स्थितियों में
संगठनों ने अपनी ताकत और व्यापकता के साथ
अपनी कमियों के बारे में भी अन्तःनिरीक्षण
किया, यह आत्मनिरीक्षण अधिक महत्वपूर्ण
है। अपनी कमियों और दोषों की पहचान एक
कठिन काम है। निश्चित ही इस समन्वय बैठक
में इस कठिन कार्य को भी अंजाम दिया गया
होगा।
मुद्दा चाहे कोई भी हो, कालेधन की वापसी,
भ्रष्टाचार की समाप्ति या सांप्रदायिक एवं
लक्षित हिंसा नियंत्रण अधिनियम का विरोध,
सभी संगठन मिलकर चलें और समाज को साथ लेकर
चलें यह आवष्यक है। मुद्दों पर चिंता
सिर्फ संघ या समविचारी संगठन ही न करें,
चिंता सामाजिक स्तर पर होनी चाहिए। आंदोलन
और अभियान महज खानापुरी मात्र कार्यक्रम
बनकर न रह जाये। संघ की मूल चिंता यही है
कि आंदोलन चाहे अखिल भारतीय विद्यार्थी
परिषद् का हो या भारतीय किसान संघ का या
फिर विश्व हिन्दू परिषद् का उसे सिर्फ
संगठन का नहीं समाज का आंदोलन बनना चाहिए।
संगठन चाहे जितना बड़ा हो जाये अगर वह
जनांदोलन खड़ा नहीं कर पाता तो उसका प्रभाव
निर्णायक नहीं होगा।
हालांकि आरएसएस ने मार्च 2011 में ही
भ्रष्टाचार के मृद्दे पर मत प्रकट कर दिया
था। चाहे अन्ना का अनशन हो या बाबा रामदेव
का धरना संघ ने दोनों का समर्थन कियाा।
लेकिन संघ के समर्थकों और स्वयंसेवकों को
यह सवाल खाए जा रहा है कि क्या कारण था कि
भ्रष्टाचार और कालेधन पर किसी भी समविचारी
संगठन ने आंदोलन का नेतृत्व नहीं किया और
बाबा रामदेव के दमन को भी देखते रह गए। आज
जबकि अन्ना के आंदोलन की परतें खुल रही
है। आंदोलन के पीछे का राज सामने आ रहा
है। अन्ना आंदोलन में केजड़ीवाल, मनीष
सिसोदिया, हर्षमंदर, स्वामी अग्निवेश, मेधा
पाटकर की भूमिकाएं और अन्य शंकाएं जाहिर
हो रही हैं तब भी भ्रष्टाचार के खिलाफ इस
आंदोलन को समर्थन देने के सिवा संघ और
स्वयंसेवकों के पास कोई और विकल्प नहीं बचा
है।
समन्वय बैठक में आए संगठनों के लिए एक बड़ा
सवाल राजनीति से जुड़ा है। कांग्रेस की
हालत पस्त है। कांग्रेस की सर्वेसर्वा
सोनिया बीमार हैं। कांग्रेस को नए नेतृत्व
की दरकार है। नेतृत्व संभालने को आतुर
राहुल में न तो योग्यता है और न ही क्षमता।
आने वाले समय में कांग्रेस की एकता दरक
सकती है। राजकुमार राहुल और राजकुमारी
प्रियंका के बीच सत्ता, धन और प्रभुता के
लिए संघर्ष निश्चित है। इस संघर्ष में सभी
कांग्रेसी महज दर्शक नहीं रहेंगे। फिर
कांग्रेस का क्या होगा यह तो समय ही
बतायेगा। लेकिन इस नाजुक स्थिति में
राजनीति के खालीपन को कौन भरेगा, कैसे
भरेगा। क्या भाजपा इसके लिए तैयार है? संघ
इस नाजुक राजनीतिक परिस्थिति के लिए कितना
तैयार है?
वर्तमान यूपीए सरकार ने संघ के सामने एक
नया खतरा खड़ा कर दिया है। सोनिया गांधी की
अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद
ने ‘सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा
नियंत्रण अधिनियम 2011 विधेयक’ का मसौदा
तैयार किया है। यह विधेयक देष की एकात्मता
एवं सामाजिक सौहार्द को गंभीर हानि
पहुंचाने वाला है। इस विधेयक के विरोध के
बहाने संघ एक बार फिर अपने को धारदार बनाने
की कवायद करेगा। संभव है इस मुद्दे पर
विहिप के नेतृत्व में इसके विरोध का
ताना-बाना बुना जाए। समाज के विभिन्न समूहों
को प्रत्येक स्तर पर इस प्रस्तावित विधेयक
का विरोध करने के लिए संगठित किया जाय।
कोशिश यही होगी कि यह सही मायने में
आंदोलन का रूप ले, जनांदोलन बने। संघ की
तीन दिवसीय बैठक खत्म हो गई। समविचारी
संगठनों के प्रतिनिधि जहां से आए थे वापस
वहीं पहंुच गए। वे क्या लेने आए थे, क्या
लेकर गए यह तो उन्हें ही पता होगा, लेकिन
संघ का संदेश यही है - संगच्छध्वम्
संवद्ध्वम्। संवोमनांसि जानताम्। देवाभागम्
यथापूर्वें सं जानाना उपासते। वस्तुतः यह
ऋग्वेद के दसवें मंडल, 191 वें सूत्र के
दूसरे मंत्र में उल्लिखित है। आशय स्पष्ट
है - जिस प्रकार पहले के देवता एकमत होकर
अर्थात् मिज-जुलकर अपने-अपने यज्ञभाग (दायित्व)
को स्वीकार करते आए हैं, उसी प्रकार तुम
सब भी साथ-साथ चलो, साथ-साथ बोलो और तुम
सबके मन एकमत हों। यह साहचर्य सार्थक और
प्रभावी हो संघ की यह भी अपेक्षा होगी।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया
एक्टीविस्ट हैं)
समाचार स्रोतः
अनिल सौमित्र, भोपाल, Anil Saumitra,
Bhopal |