लखनऊ
।
(उप्रससे)।
लोकसभा चुनाव में यूपी के चौकाने
वाले परिणामों के बाद अगले
विधानसभा चुनाव के लिए हर दल अपनी
रणनीति में बदलाव करने को तैयार
हैं लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक
बदलाव भाजपा और बसपा में दिखाई पड़
रहा है। जहां पिछले दो विधानसभा
चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग का
फार्मूला अपनाने वाली बसपा अपने
दलित एजेण्डे पर लौटने को तैयार
है वहीं सवर्ण की पार्टी होने का
आरोप झेल रही भाजपा अब कल्याण
फार्मूले के तहत ‘सोशल
इंजीनियिरिंग’ की तरफ लौट रही है।
भाजपा ने जिस तरह उत्तर प्रदेश
में एक ब्राम्हण चेहरे को हटाकर
पिछडी जाति के केशव मौर्य की
ताजपोशी की है। उसके पीछे सोशल
इंजीनियिरिंग के फार्मूले पर चलने
की रणनीति है। पार्टी को लगने लगा
था कि केवल सवर्णो के सहारे चुनावी
वैतरणी को पार नहींे किया जा सकता
है। इसलिए उसने जोखिम भरा कदम
उठाया। वहीं मायावती लोकसभा चुनाव
में सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले
से धोखा खा चुकी है। इसलिए वह फिर
अपने मूल वोट बैंक को लुभाने की
तैयारी में है।
अम्बेडरक जयन्ती पर उन्होने दूर
दूर से आये लोगों को यह समझाने
मंे लगी रही कि दलितों, आदिवासियों
व अन्य पिछड़े वर्गों के असली
भगवान, मन्दिर व तीर्थस्थल अयोध्या,
मथुरा, वाराणसी, तिरूपति, द्वारिका
व केदारनाथ आदि नहीं है, बल्कि एक
मात्र असली भगवान डा. भीमराव
अम्बेडकर ही हैं। प्रदेश में इनका
असली मन्दिर व तीर्थ स्थान भी
सामाजिक परिवर्तन स्थल लखनऊ ही
है।
वहीं
भाजपा जिसे सवर्णो की पार्टी कहा
जाता है उस पार्टी ने अपना पूरा
फोकस अब दलितों के ऊपर लगा दिया
है। भाजपा ने डा अम्बेडकर की
जयन्ती को समाजिक समरसता दिवस के
रूप में मनाने के साथ ही एक
अभियान मण्डल स्तर तक शुरू कर दिया
है जिसमें डा0 अम्बेडकर से
सम्बन्धित जीवन स्मृतियों को
सुसज्जजित करने के साथ उसे ं भव्य
स्वरूप देने का कार्य शुरू किया
है। जबकि मोदी सरकार ने उसे
पंचतीर्थ के रूप में घोषित किया
है।
यूपी में दलित वोटों के लिये चल
रहे महासंग्राम में पहली लड़ाई तो
बसपा जीत चुकी है.। भाजपा की लाख
कोशिशों के बावजूद मायावती ं भीड़
जुटाने में कामयाब रहें। बसपा के
इस सफल कार्यक्रम के बाद अब माना
जाने लगा है कि दलित वोटों पर
वर्चस्व को लेकर बसपा और भाजपा के
बीच चल रही जंग में लाभ बसपा को
ही होने जा रहा है।
उधर भाजपा की रणनीति है कि दलित
वोट बैंक को लेकर बसपा पर इतना
अधिक आक्रामक हुआ जाये कि वह इसे
बचाने के लिये अपने पुराने एजेंडे
पर लौटने को मजबूर हो जाये तथा
उसके सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले
में दरार पड़ जाये।
दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव के
परिणाम को देखते हुए ही मायावती
को अपनी रणनीति में बदलाव कर दलित
एजेंडे पर वापस लौटना पडा है। इस
एजेण्डे पर लौटने के लिए हीमायावती
को अपनी ही सोशल इंजीनियरिंग के
फार्मूले से हाथ खीचना पडा है
जिसके बल पर उन्होंने प्रदेश में
बहुमत की सरकार बनाई थी।