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"योग"
क्या है ? और "जीवन" क्या है ?
दोनों ही शब्द छोटे छोटे परन्तु विराट सागर समेटे हुए हैं। इनके शाब्दिक अर्थों के
साथ-साथ योग और जीवन का परस्पर सम्बन्ध क्या है, आज इस विषय पर विस्तृत चर्चा करने
की इच्छा एक बार फिर से जागृत हो उठी है। हर बार इस समन्दर में गोते लगाना शुरू करती
हूँ और आनन्दातिरेक में गुम हो जाती हूँ, शब्दों से परे, बहुत दूर।
बहुत बचपन में माँ से गीता के श्लोकों के माध्यम से सुना था:-
"योग: चित्त वृत्ति निरोध:"
“योग: कर्मसु कौशलम”
माँ की लोरियां गीता पाठ ही होती थीं।
आज तक उनके हाथ में "गीता" पुस्तक के रूप में नहीं देखी । उन्हें कण्ठस्थ है, दिन
में वो कितनी बार इसे दोहरा लेती हैं, यह भी नहीं पता। परन्तु रग-रग में भगवान
श्रीकृष्ण का गीता ज्ञान बस गया है। बचपन से ही माँ-कर्मयोग, ध्यान योग एवं ज्ञान
योग की बातें गा-गाकर सुनती थी। कानों गूँजते वो शब्द भी तो योग ही हैं। शाब्दिक
अर्थ के अनुसार योग माना जुड़ना, तो उन ध्वनियों से कर्ण ग्रंथियाँ जन्म लेने से इस
क्षण तक जुडी हुई हैं। व्यक्तिगत जीवन के अनुभव फिर कभी साझा करेंगे। आज आगे बढ़ती
हूँ।
महर्षि पतंजलि के अनुसार:- "योगश्चित वृत्ति निरोध:" चित्त की वृत्तियों को रोकना
ही योग है। "युज्यते असौ योग:" अर्थात आत्मा व् परमात्मा को युक्त करना ही योग है।
दोनों ही अर्थ मुझे परस्पर विरोधाभासी लगे। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है और यदि किसी
को गलत लगे तो क्षमा प्रार्थी हूँ। प्रथम वाक्य कहता है कि रोकना ही योग है,
द्वितीय सन्देश देता है कि जोड़ना ही योग है। जिन शिक्षा प्रणालियों के अन्तर्गत मेरा
जीवन बीता है,उसमें ही लग जाने पर वाक्य का अर्थ केवल और केवल वही रह जाता है, अन्य
कुछ भी नहीं। जैसे उदहारण के तौर पर रसगुल्ला ही मिठाई है। आम ही फल है आदि-आदि। यहाँ
यह सत्य है कि योग के माध्यम से चित्त की वृत्तियों को रोका जा सकता है। "योग:
कर्मसु कौशलम" योग के माध्यम से कार्यों में कुशलता प्राप्त होती है।
कहने से तात्पर्य यह है "योग" शब्द पर विस्तृत चर्चा और विचार सामान्य जन मानस तक
पहुँचाना नितांत आवश्यक हो चुका है। आज की युवा पीढ़ी में अस्सी प्रतिशत से अधिक लोग
योग को शारीरिक व्यायाम तक सीमित समझते हैं। भारतीय योग विदेश यात्रा करके लौटा और
योग: से योगा हो गया। अब तो हर दूसरे व्यक्ति का स्टेटस सिम्बल बनकर नाचता दीख पड़ता
है यह "योगा" । जिससे मिलो, सुनाई पड़ता है, भई हम तो योगा करते हैं। मेरे आज कलम
उठाने का मक़सद वही सामान्य जनसमूह है, जो योग नहीं योगा पद्धति से जुड़कर बहुत बड़ा
गर्व महसूस करने लगे हैं। अच्छा है, शरीर को कुछ क्रिया-कलापों से जोड़ने की
प्रक्रियाओं की तरफ तो अग्रसर तो हो रहे हैं। तो ऐसे समय में सामाजिक कार्यों में
अपना जीवन समर्पित करने वाले मनीषियों को अपने ज्ञान के भण्डार खोलकर समाज के जन-जन
तक पहुँचाने का समय आ चुका है, अन्यथा हमारा भारत (जो ऋषि और कृषि पर निर्भर था, है
और रहेगा) हवा-हवाई बातों को हवा में उड़ाकर अपनी वैदिक शक्तियों से अनभिज्ञ होता चला
जायेगा।
हमारे भारत के समस्त ऋषि मुनियों ने आत्मा को परम तत्व यानि परमात्मा से जुड़ने और
जोड़ने की यौगिक प्रक्रियाओं का वर्णन सभी ग्रन्थों में किया है। कोई भी धर्म, जाति
या पन्थ योग शक्ति को नकार नहीं सकता। आपके हाथों की पाँचों उँगलियाँ जब जुड़कर
मुड़कर कस जाती हैं तो मुट्ठी बन जाती है। अनेक योग मुद्राओं का वर्णन हमारे ग्रन्थों
में आता है, जिनके माध्यम से शरीर के सभी रोगों और कष्टों का निवारण हो सकता है। वर
मुद्रा , उदान मुद्रा, अपान मुद्रा, मेरुदण्ड मुद्रा सहित अन्य अनेकानेक मुद्रायें
इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। यहीं बात आती है योग और जीवन की , जीवन साँस के साथ जुड़ा
है। साँस का आना-जाना ही एक शरीर को "जीव" बनाता है। अतः योग की या मुद्रा की समस्त
प्रक्रियाओं का प्रभाव तभी होता है जब साँस का एक निश्चित प्रवाह क्रम उस गतिविधि
के साथ हो। यहाँ एक बार फिर कर्म योग, ध्यान योग, ज्ञान योग की चर्चा अनिवार्य हो
गयी।
जीवन का सबसे महत्वपूर्ण सत्य है क्या? वह सत्य यह है कि मेरे भीतर एक ऐसा तत्व है
जो कभी नष्ट हो ही नहीं सकता। जैसा कि गीता में भी कहा गया है कि शरीर मरता है ,
आत्मा की कभी मृत्यु नहीं होती। यह आत्म तत्व हम सभी में एक है । तभी तो हम कह पाते
हैं कि आपसी आत्मीयता सर्वोपरि है। परन्तु इस आत्मीयता के लिए एक स्वस्थ देह की
अनिवार्यता को नकारा नहीं जा सकता जिसके लिए योगासन, प्राणायाम सहित अनेक
प्रक्रियाएँ नितान्त आवश्यक हैं। अतः योग की वैदिक परम्पराओं का निर्वहन करते हुए
ही सुन्दर एवं स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है।
जीवन को सुचारु रूप से जीने के लिए अपने समस्त कर्मों को ध्यान और ज्ञान से जोड़कर
अकर्ता भाव से करने पर निश्चित ही तनावरहित, विकार रहित जीवन जीया जाना आवश्यक है।
ऋषि के साथ कृषि की बात ना हो तो विषय अपूर्ण होगा। कृषि कार्य की समस्त क्रियाएं
यौगिक क्रियाएं हैं वो चाहे हल चलाना हो, बीज बोना हो या पौध का प्रत्यारोपण।
फिर-फिर एक ही बात मन-मस्तिष्क में आती है कि एक बार मुड़कर अपनी पुरातन परम्पराओं,
संस्कृतियों एवं वैदिक ज्ञान की तरफ दृष्टिपात करें । कोरोना वायरस तो क्या दुनिया
का कोई भी कष्ट आपको छू भी नहीं पायेगा। योग, ध्यान, साधना, पूजन, कर्मकाण्ड,
कृषिकार्य नित्य होने वाले गृह कार्य, खेल सहित अनेकानेक योगासन के ऐसे माध्यम हैं
जिन्हें हम नज़रअंदाज़ करके तथाकथित “योगा” करने की अंधी दौड़ में भाग रहे हैं। "आसनम
स्थिरम सुखम"। थोड़ी देर स्थिर होकर बैठिये अपने साथ ।सुख आसन हो या पद्मासन,
विश्वास कीजिये जीवन एक सुन्दर उत्सव बन जायेगा।
नक्षत्रीय या ग्रहीय दशाओं के साथ जुड़कर हम यौगिक क्रियाओं को ध्यान देते हं। तो
सर्वप्रथम प्रात: काल सूर्योदय के साथ यदि "सूर्यनमस्कार" करते हैं तो लगभग शरीर के
सभी अंगों पर एवं जीवन की ग्रहीय एवं नक्षत्रीय समस्याओं पर भी नियंत्रण किया जा
सकता है। कुल मिलाकर निष्कर्ष स्वरुप यह कहना समयोचित होगा कि हमें अपने कर्म योग,
ध्यान योग एवं ज्ञान योग के प्रति अति सजग होना अनिवार्य है।
उर्मिल ग्रोवर, योग एवं ज्योतिष विशेषज्ञ
(9305709504) |