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आलेख/भूपत सिंह बिष्ट/ 08.07.20202

पंचशील को भूलें, तिब्बत स्वायत्ता के लिए आगे बढ़ें

भूपत सिंह बिष्ट

Publoshed on 08.07.2020, Author Name; Bhupat Singh Bist  Journalist

चीन को उसकी कुटिलता और पैंतरों से सबक सिखाने का समय अब आ गया है - अपने जांबाज शहीदों के बलिदान को सकारात्मक सोच में बदला जाये। चीन अधिगृहीत तिब्बत सीमा पर हो रहे बलिदानों को न भूलने के साथ, अब चीन के खिलाफ ठोस कार्रवाई का वक्त है।
हमारा चीन पर अति विश्वास आत्मघाती रहा है। 1954 में जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने पंचशील समझौते के तहद चीन के साथ व्यापार और शांति के प्रयास किये थे। 15 मई 1954 को संसद में नेहरू ने चीन के साथ समझौते का प्रस्ताव रखा - जिस में तिब्बत को पक्षकार नहीं बनाया गया था। दूसरे शब्दों में हमने तिब्बत को प्लेट में सजाकर विश्व के सामने चीन के आगे परोस कर रख दिया था। आज हम उस कूटनीतिक विफलता को भी झेल रहे हैं।

पंचशील के नाम पर मिला धोखा
जून 1954 में चीन के राष्ट्राध्यक्ष चाऊ एनलाई 3 दिन के दौरे पर भारत आये। हिंदी चीनी, भाई भाई के नारों में तिब्बत को भुलाकर तब विश्व के सारे मामलों पर चर्चा की गई। पंचशील समझौता होते ही लाल चीन ने जून 1954 में भारत पर ही आघात कर दिया और सबसे पहले आज के उत्तराखंड के नीति पास और बाड़ाहाती में चीन ने अपने पांव पसारने शुरू किये। जियो और जीने दो का नारा लाल चीन ने तब खोखला बना दिया था। हर बार चीन की सेना भारतीय सेना पर घुसपैठ का आरोप लगाकर नियंत्रण रेखा को अपने पक्ष में कुछ किमी में हड़प लेती है।
1947 से पहले अंग्रेजों ने चीन के विस्तारवादी रवैये पर अंकुश रखने के लिए तिब्बत और नेपाल के साथ अपनी कूटनीतिक व सैन्य तैयारियां हमेशा चुस्त - दुरूस्त रखी थी और आज भी हम लोकतंत्र विरोधी चीन के खिलाफ इंग्लैंड, अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों का साथ सहजता से हासिल कर सकते हैं। दलाई लामा और उनकी निर्वासित सरकार चीन को मात देने के लिए भारत के पास एक सबसे प्रमुख हथियार हैं।

तिब्बत पर अतिक्रमण के साथ ही भारत से संघर्ष
तिब्बत के साथ भारत के संबंध भगवान बुद्ध की धार्मिकता के अलावा कभी व्यापार, पोस्ट आफिस, तारघर, गेस्ट हाउस और सेना प्रबंधन आदि के भी रहे हैं। हमने यह सब चीन के धोखे में पंचशील समझौते के तहद एक झटके में गवां दिया। उम्मीद यह रही कि चीन के साथ मिलकर विश्व के दो सबसे बड़े जनसंख्या वाले देश नई विश्व नीतियों के मापदंड तय करने वाले हैं।
गौर से देखा जाये तो चीन की भाषा व संस्कृति का तिब्बत देश की बोली भाषा और संस्कृति से कोई मेल नहीं है। चीन अपने सीमा विस्तार में इतिहास के लच्छेदार प्रसंग और अपनी पब्लिक लिबरेशन आर्मी के शक्ति प्रदर्शन को हमेशा सर्वोपरि मानता है। उधर विश्व की छत कहलाने वाला तिब्बत शांति प्रिय और धार्मिक आस्था में भगवान बुद्ध की शिक्षा बढ़ाने वाला देश है। कैलाश पर्वत, मान सरोवर व राक्षस ताल से सज्जित तिब्बत भूमि में सनातन हिन्दू आस्था का केंद्र बिंदु भगवान शिव का वास स्थान है। आज हम कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए चीन को अरबों रूपये का लाभ दे रहे हैं।
हमारा चीन से संघर्ष 1950 में ही शुरू हो गया था - जब उसने अपने नापाक इरादों के साथ तिब्बत पर आक्रमण किया और अपना कब्जा जमाना शुरू किया। भारत की आजादी के प्रारंभिक सालों में हम तब चीन को सबक सीखाने की स्थिति में नहीं थे। लेकिन 1959 में दलाई लामा को शरण देकर हमने साबित कर दिया था कि हम चीन के आगे घुटने टेकने वाले राष्ट्र भी नहीं हैं।
विस्तारवादी चीन के लिए भारत की आजादी का समय एक अनुकूल दौर साबित हो रहा था क्योंकि भारत अपनी आजादी के दौरान पड़ोसी देशों पर चीन की गिद्ध दृष्टि को परखने का अवसर भी नहीं निकाल पा रहा था। 1951 में तिब्बत हड़पने के बाद विस्तारवादी कम्युनिस्ट चीन अब भारत की भूमि पर ललचाने लगा। तिब्बत बार्डर पर बोली - भाषा, समाज और बौद्ध संस्कृति में अनेक समानता के कारण अरूणाचल, सिक्किम, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश से लेकर जम्मू कश्मीर तक फैले इन हिमालयी राज्यों पर चीनी अतिक्रमण की काली छाया देर सबेर आनी ही थी।

अब युद्ध हुआ तो तिब्बत होगा फिर स्वतंत्र
दलाई लामा की आड़ में चीन ने भारत पर 1962 में आक्रमण किया लेकिन उस से पहले चीन के तानाशाह चैवन लाई अपने पंचशील सिद्धांत और हिंदी चीनी भाई - भाई के नारे से पूरे विश्व की आंखों में धूल झोंकने से बाज नहीं आये। आज जो गलवान घाटी, पैगांग सो झील, लद्दाख में घट रहा है। यहीं खेल चीन ने बाड़ाहाती - नीति पास उत्तराखंड, अरूणाचल प्रदेश के लिए स्टेपल वीसा और डोकलाम सीमा विवाद सिक्किम में खेला है।
ना ही चीन कभी सीमा विवाद को भारत के साथ तय करना चाहता है और नाही इस हजारों किमी के भू भाग को संभालने की उसकी सैन्य व आर्थिक क्षमता है। सार्क देशों में भारत के प्रभुत्व को कम करने के लिए चीन यह उकसाने वाली कार्रवाई करके पीछे हट जाता है।
भारत को अब चीन अधिगृहित तिब्बत सीमा पर भारी सेना बंदोबस्त, इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण और साधन व सुविधा जुटाने में भारी निवेश करना पड़ता है। चीन के साथ होने वाले संघर्ष में जनधन की हानि भी उठानी पड़ती है। वैसे 1962 और आज की परिस्थितियों में जमीन आसमान का अंतर है। अब हमारी सभी सीमाओं पर सड़क व वायु मार्ग से एप्रोच बनायी जा चुकी हैं। अब युद्ध हुआ तो चीन को तिब्बत से भागना पड़ेगा। तिब्बत फिर से स्वतत्र राष्ट्र होगा।
दलाई लामा को अंतरराष्ट्रीय मंच न मिले इस के लिए चीन अपना सब कुछ दाव पर लगा रखा है लेकिन फिर भी दलाई लामा को यूरोपीय देश नोबुल पीस पुरस्कार जैसे अनेक सम्मान देते रहे हैं। अब भारत को फिर से दलाई लामा को विश्व चर्चा में लाने के लिए ठोस रणनीति बनाकर चीन के खिलाफ डिप्लोमैटिक दबाव बनाने का समय है। तिब्बत की निर्वासित सरकार और तिब्बती युवाओं को चीन के खिलाफ मुखर प्रदर्शन की छूट, धर्मशाला और देश के विभिन्न बौद्ध गोम्पाओं से इस लड़ाई को आगे बढ़ाने की जरूरत है।

तिब्बती संस्कृति को नष्ट कर रही है चीनी सेना
तिब्बती युवा अपने देश को आजाद कराने के लिए गाहे - बगाहे धरना, प्रदर्शन , रैलियां चीनी प्रतिनिधियों के सामने करते आ रहे हैं और कई बार तिब्बती युवा आत्मदाह जैसे चरम कदम भी उठा चुके हैं। 1962 की लड़ाई में चीन जो कि अरूणाचल में वेस्ट कामेंग में काफी अंदर तक घुस आया था और अपने सैकड़ों सैनिकों के हताहत होने के बाद भी अपने क्षेत्र में वापस लौट गया तो इस के कई कारण हैं। एक तो पूरा विश्व चीन के खिलाफ खड़ा हो रहा था और दूसरा तिब्बत में चीन की सप्लाई लाइन मजबूत और सुचारू नहीं थी।
आज भी चीन अधिकृत तिब्बत में विकास अधूरा है। चीनी सेना तेजी से तिब्बती संस्कृति को नष्ट करने पर उतारू है और चीन से हजारों मील दूर होने के कारण विकास की बयार इस पठारी भू भाग पर धीमी गति से आ रही है। भले ही सड़क और अन्य यातायात मार्ग तिब्बत में मौजूद हैं लेकिन भारत की सीमा से जुड़े क्षेत्र विषम भोगोलिक और विपरीत मौसम के कारण वर्ष में कुछ माह के लिए ही रहने लायक हैं। यानि साल भर यहां रिहायश करना मुश्किल काम है। यह जोखिम लेना चीनी सेना को भारी पड़ सकता है। अधिकतर चीनी सेना भारतीय इलाकों में आकर अपने बंकर व चीनी संदेश लिखकर इसीलिए लौट जाती है।

तिब्बत की स्वायत्ता के लिए मुखर होना समय की मांग
विगत मार्च 2019 में तिब्बती समुदाय ने दलाई लामा के भारत में शरण लेने के 60 वें वर्ष पर अरूणाचल जिमीथांग से धर्मशाला तक पदयात्रा आयोजित कर चीन को अपने बुलंद इरादों का परिचय दिया था। बीच - बीच में दलाई लामा को भारत से बाहर लाने के लिए चीन बातचीत का ड्रामा भी करता है। अब दलाई लामा जितनी सक्रियता से तिब्बत स्वायत्तता के लिए मुखर होते जायेंगे - तिब्बत सीमा पर हमारा कूटनीतिक पक्ष मजबूत होता रहेगा। पंचेन लामा भी अब भारत की शरण में आने से चीन के खिलाफ धार्मिक आस्था का परचम तिब्बत के निर्वासित लोग समय पर मजबूत करते रहे हैं।
20 सैनिकों की मौत के बाद भारत को चीन के साथ व्यापारिक और सैन्य सभी करारों पर दोबारा से दृष्टिपात करना जरूरी हो गया है। चीन अपने विस्तार के लिए अरूणाचल से लेकर कश्मीर तक किसी भी समझौते को पालन नहीं कर रहा है तो हमें भी अब पंचशील जैसे समझौते को रद्द कर तिब्बत की स्वायत्तता लौटाने की बात करनी चाहिए।

भूपत सिंह बिष्ट  Bhupat Singh Bistलेखकः स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

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Article Tags: Tibet ,  བོད་ China, Himalaya, Jawahar Lal Nehru, Chou en Lai , Panchsheel, Dalai Lama
 
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Last modified: 06/22/20