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महात्मा गांधीः पोरबंदर से राष्ट्रपिता तक

डा. नीता सक्सेना

Publised on : 28.10.2019    Time 12:15     Tags: Mahatma Gandhi 150

चल पड़े जिधर दो डग मग में । चल पड़े कोटि पग उसी ओर।।

पड़ गई जिधर एक दृष्टि। पड़ गये कोटि दृग उसी ओर।। (सोहन लाल द्विवेदी)

महात्मा गांधी जिन्हें प्यार से हम बापू कहते हैं।  दोअक्टूबर 1869 पोरबन्दर में जन्मे मोहन दास करमचन्द गांधी ने सत्य और अंहिसा को ऐसा अचूक शस्त्र बनाया, जिसके आगे दुनिया की सबसे शक्तिशाली सरकार को भी झुकना पड़ा।

इस वर्ष अक्टूबर में उनकी 150 वीं जयन्ती के विशेष अवसर पर यह बताने का प्रयास कर रही हूँ कि किस तरह गांधी जी ने अपने सत्याग्रही आन्दोलन से अंगे्रजी सरकार के सिंहासन हिला दिया। महात्मा गांधी सन् 1919 से 1948 तक राजनीतिक इतिहास में एक नायक की भूमिका में रहे। इस काल को गाँधी युग कहा जाता है। गांधी जी के पिता करमचन्द गांधी एवं माता जी पुतली बाई दोनों ही कर्तव्यपरायण एवं धर्म परायण वैष्णव थे। उनके ऊपर भी परिवार के संस्कारों की गहरी छाप थी, बचपन में ही हरिश्चन्द्र एवं श्रवण  कुमार की कथाओं और उपदेशों का उनके जीवन पर गहरा असर पड़ा। उन्होंने दोनों पात्रों के सिन्द्धातों और आदर्शों को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया।  अहिंसा के पुजारी अपने आदर्शों पर ही एक दिन  भारत के राष्ट्रपिता बने।

विदेश में पढ़ाई

सन्1888 में अलफ्रेड स्कूल राजकोट एवं भावनगर से प्रारम्भिक पढ़ाई पूरी करने के बाद मोहनदास ने बैरिस्ट्री की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैण्ड जाने का निश्चय किया। लेकिन, उनकी माता उन्हें विलायत  भेजने के लिए राजी नहीं थीं - वह बहुत चिंतित थीं क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि विलायत का खान-पान रहने की परम्परा हमारी  भारतीय परम्परा से पूरी तरह भिन्न है। वहाँ की परम्परा हमारे धर्म को खंडित कर सकती है। गांधी जी ने अपनी माँ को विश्वास दिलाया जो भी आपकी चिन्ता का कारण है, उन वस्तुओं को प्रयोग करना तो दूर मैं उनके विषय में स्वप्न में नहीं सोचूंगा । गाँधी के आश्वासन एवं आग्रह करने पर उन्हें मां ने इंग्लैण्ड जाने की आज्ञा दे दी।  गांधी जी ने भी अपनी माँ को दिये वचनों को पूरी ईमानदारी से निभाया। लंदन से विधि की परीक्षा पास करने के बाद गांधी ने स्वदेश लौट कर बम्बई में वकालत शुरु की। यहां आरम्भ में तो उनको कोई खास सफलता नहीं मिली। सन् 1893 में एक भारतीय कम्पनी की पैरवी करने के लिए उन्हें दक्षिण अफ्रीका जाने का अवसर मिला। यही से गांधी जी का वास्तविक संघर्ष शुरु होता है। दक्षिण अफ्रीका आकर गांधी जी को गोरे-काले के भेद का कटु अनुव हुआ। कदम-कदम पर भारतीयों को अपमान सहना पड़ता था।

वहाँ के गोरे भारतीयों को केवल कुली और मजदूर ही मानते थे। इससे ज्यादा कुछ नहीं। यहाँ तक कि गाँधी जी को भी वे कुली बैरिस्टर के नाम से पुकारते थे। फर्स्ट क्लास का टिकट होने के बाद भी उन्हें रेल में नहीं चढ़ने दिया गया । उनका सामान भी प्लेटफार्म पर ही फेंक दिया गया। भीरतीयों के सरकारी दफतरों में घुसने की अनुमति नहीं थी।

ऐसी अनेक घटनाओं ने गांधी जी को हिलाकर रख दिया। अपने प्रवासी भारतीय भाइयों की दुर्दशा देख कर अपने मित्रों एवं सहयोगियों के साथ मिल कर दक्षिणी अफ्रीका एवं भारतीय लोगों से रंग भेद की नीति के विरुद्ध रोष प्रकट किया। उनका रोष एवं आक्रोश हिंसात्मक एवं अक्रामक नहीं था। उन्होंने अपने संघर्ष का एक नया ही तरीका निकाला वह रास्ता था सत्य का। अंहिसा जो किसी भी तरह आसान नहीं था क्योंकि पूर्व में जो भी आन्दोलन हो रहे थे वे सभी हिंसात्मक शक्ति पर ही आधारित थे।

सत्याग्रह आन्दोलन

गांधी जी ने अपने इस आन्दोलन को नई दिशा दी और एक नया नाम 'सत्याग्रह' अर्थात सत्य के लिए किया गया हठ, या अंहिसात्मक कार्यवाही। आन्दोलन आरम्भ करने से पूर्व उन्होंने अपने सहयोगियों एवं प्रवासियों को समझाया कि हम सरकार की अन्याय युक्त आज्ञाओं का पालन नहीं करेंगे। हमारे ऊपर कितने भी हिंसात्मक प्रहार हों, लाठी-डन्डे से चोट पहुंचाई आए या जेल में डाला जाये हम उनके सभी बल प्रयोग का जवाब शांति, अंहिसात्मक रुसे से देंगे। हम दण्ड धैर्य, साहस पूर्वक सहन करेंगे। उनका अटल विश्वास था कि सत्य और अंहिसा की शक्ति के आगे निष्ठुर सरकार का भी हृदय परिवर्तित होगा और हमारे समक्ष झुकना ही होगा। सत्याग्रह का यह निर्णय संसार को विस्मित चकित करने वाला था। गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका सरकार का सामना करने के लिये एशियाटिक (काले लोगों) अधिनियम Asteatic Black Act½ Transimmigration और ट्राँसवाल, देशान्तर वास अधिनियम के  विरूद्ध पहली बार (सत्याग्रह) अहिंसात्मक आन्दोलन का शुभारम्भ किया।

एक ओर गोरे दक्षिण अफ्रीका में बर्बरता से हिन्दुस्तानियों पर निर्मम अत्याचार कर रहे थे, तो दूसरी ओर गांधी के अनुयायी सभी यातनाओं और प्रताड़नाओं को अहिंसात्मक तरीके से बर्दाश्त कर रहे थे। अहिंसा की शक्ति से दक्षिण अफ्रीका सरकार ने  भारतीयों के विरुद्ध सभी अनुचित एवं अवैध कानूनों को रद्द कर दिया। लगग बाइस वर्ष बाद 1915 में गाँधी जी अपनी निर्मल विजय के साथ स्वदेश लौटे। सन् 1915 में  भारत लौटने पर गोखले जी के रूप में उन्हें एक मार्गदर्शक एक विद्धान राजनीतिक गुरु मिला, जिसके मार्गदर्शन में मोहनदास ने  भविष्य की रणनीति बनायी। सर्वप्रथम गोखले जी ने गांधी को  निर्देश दिया कि अपना कुछ  समय सोसाइटी सर्वेन्ट्स आफ इन्डिया में रहें और स्थानीय परिस्थितियों एवं वातावरण को  जाने समझें।  भारत की आर्थिक  राजनीतिक  सामाजिक गहराई से अवलोकन करें। तत्पश्चात  भारत का  भ्रमण करें एवं  भारतीयों की मन: स्थिति का आकलन करने के बाद ही आगे की नीति निर्धारण करें। गोखले जी के निदेर्शानुसार - बम्बई, अहमदाबाद, पटना, इलाहाबाद, कलकत्ता, दिल्ली आदि शहरों की यात्राएं कीं। वे जनता के बीच गये जनप्रतिनिधियों - राजनीतिज्ञों से मिल कर विचार विमर्श किया तत्पश्चात् कार्यक्रमों तथा कार्यकर्तार्ओं के संगठन एवं प्रशिक्षण हेतु बाद में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की।काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में गांधी जी प्रमुख वक्ता रूप में वहाँ पहँचे। अपने  भाषण में वहाँ उपस्थित अमीर एवं सामन्त वर्ग को  भारत की आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति के लिए काफी हद तक दोषी ठहराया। इससे सभ्रान्त वर्ग रुष्ट होकर समारोह बीच में छोड़ कर चला गया। चारों तरफ कोहराम मच गया। गाँधी जी को भी अपना  भाषण बीच में ही रोकना पड़ा। इस घटना से जनता भी समझ रही थी कि हमें अंग्रेजी सरकार से आजादी दिलाने वाला एक मुखर, सच्चा और नवीन दृष्टिकोण रखने वाला सकारत्मक विचारों वाला नेता मिलगाया है।दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रहआन्दोलन के अनुव से ही 1917 में बिहार के चंपारण जिले में नील किसानों को यूरोपीय मालिकों के विरुद्ध संगठित किया।  चंपारण खेड़ा में लगान विरोधी आन्दोलन चलाया। यद्यपि इस सत्याग्रह आन्दोलन में सीमित सफलता मिली।  लेकिन इस आन्दोलन में गाँधी जी की रचनात्मक एवं सत्याग्रह पद्धति की एक झलक भारतवासियों ने अवश्य देखी और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की । कुशल नीतियों रचनात्मक कार्य, नि:स्वार्थ सेवा एवं अहिंसा और सत्य के तप एवं कर्तव्य निष्ठा ईमानदारी जैसे संतों के गुणों को देखते समझते हुए रविन्द्र नाथ टैगोर ने 1919 में आपको महात्मा कह कर बुलाया। अब गांधी महात्मा गाँधी कहलाए जाने लगे।

अहिंसा को बनाया हथियार

 आपके अनुकरणीय गुणों और उच्चकोटि के चरित्र को समझते हुए ईसाई धर्माचार्य (लार्ड विशप) ने कहा गाँधी जी ईसा मसीह के सच्चे प्रतिनिधि हैं। रोलट एक्ट और जलियां वाला बाग संहार की पृष्ठभूमि में गाँधी जी ने राजनीति में सक्रियता से  भाग लेना शुरु कर दिया। अब गाँधी जी का लक्ष्य था अंग्रेजी सम्राज्य वादी सरकार के खिलाफ मोर्चा लेना। उन्हें देश के बाहर निकालना तथा साथ ही साथ स्वशासन, आत्म शासन के योग्य बनाना जैसी चुनौती भी थी। 1930 में आन्दोलनकारियों की आजादी की मांग  को लेकर जनता में आक्रोश की अग्नि धधक रही थी, लेकिन गाँधी जी ने पूरा आन्दोलन अपने सिद्धान्तों के अनुरूप ही संचालित किया। उन्होंने जनता को भी बहुत संयमित शान्तिपूर्ण वातावरण रखने का निर्देश दिया। उन्होंने आन्दोलनकारियों को आदेश दिया कि सरकार का कोई भी रुख हो।  हम उसका प्रत्युत्तर अहिंसात्मक ही होगा।

1930 में गाँधी जी ने कानून  भंग की घोषणा की एवं नमक कानून तोड़ने के लिए साबरमती आश्रम से दाँड़ी समुद्र तक करीब 20-25 दिन तक 400 किमी की यात्रा पैदल पूरी की। वहाँ नमक बना कर कानून तोड़ा।

पूर्व आन्दोलन की  भांति इस बार भी बड़ी संख्या में लोग जेल में डाल दिये गये उसी तरह की यातनाएं देकर प्रताड़ित किया - दमन शोषण प्रताड़नाओं के बावजूद भी धुन के पक्के गाँधी जी ने अपना मार्ग नहीं बदला। देश के हर कोने से लोग आन्दोलन मे जुड़ते जा रहे थे जन आक्रोश एवं वृहद के पास शासन सुधार सम्बन्धी प्रस्ताव भेजा एवं गाँधी जी को इंग्लैण्ड में गोलमेज सम्मेलन में आने का निमन्त्रण दिया। जिसमें  भारत के लगग सभी नेताओं ने सक्रियता से भाग लिया लम्बी-लम्बी वातार्एं समझौता की प्रक्रियांए बिना किसी निष्कर्ष से सम्मेलन समाप्त हो गया।

भारत छोड़ो आन्दोलन

गाँधी जी ने अंग्रेजों को खुली चुनौती दी अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सन् 1944 में जैसे गाँधी जी कारावास से मुक्त हुए पुन: नये जोश नई सकारात्मक ऊर्जा के साथ अपनी अंहिसा का युद्ध करते रहे । इंग्लैण्ड पर भी सब तरफ से भारत को स्वतन्त्र करने का दबाव भी पड़ रहा था। कर्मयोगी की कठोर तपस्या के फलस्वरूप अगस्त 1947 को आजादी मिल ही गई। लेकिन आजादी के मीठे फल के साथ भारत को बंटवारे के जहर को पीना पड़ा। अपने अन्तिम समय में भी गांधी जी शांति का सन्देश दुनिया को देने जा रहे थे। दिल्ली की प्रार्थना सभा में एक आततायी ने अंहिसा के पुजारी की गोली मार कर निर्मम हत्या कर दी। राम नाम के पुनीत शब्दों के साथ इस दिव्य पुण्य आत्मा ने इस जगत से विदाई ली।  प्रेम, अंहिसा, सत्य एवं विश्वबन्धुत्व का सन्देश पूरे विश्व की मानव जाति को देकर मानव जाति को  देकर उन्होने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। हमारा देश, हमारी भावी पीढ़ी सदैव इस कर्म योगी की ऋणी रहेगी।

 

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