देश
की स्वतंत्रता के साथ ही मौलिक अधिकारों,
कर्तव्यों और
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
के साथ-साथ प्रेस
की आजादी को लेकर बहस छिड़ गई थी। यह सवाल
उठने लगा था कि संविधान में जब नागरिकों
को अभिव्यक्ति के अधिकार अनुच्छेद
19 के अन्तर्गत प्रदान कर
दिये गए हैं, तो
प्रेस के लिए स्वतंत्रता की सुरक्षा की
गारंटी क्या है?
इस पर संविधान विशेषज्ञों ने और सर्वोच्च
न्यायालय ने कई बार यह स्पष्ट किया कि जो
अधिकार अभिव्यक्ति और वक्तव्य के लिए
नागरिकों को प्रदत्त किये गए हैं। वही
प्रेस के लिए भी हैं। इनसे इतर कोई अधिकार
नहीं दिया गया है। लेकिन,
क्या ये अधिकार प्रेस
अथवा आज के मीडिया की आजादी के लिए
पर्याप्त हैं ? तो
उत्तर मिलता है कि कतई नहीं हैं।
यही कारण है कि दुनिया के
सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणतंत्र होने के
बावजूद देश मे कई बार प्रेस का गला घोंटने
की कोशिश की गई। प्रेस के लिए काले कानून
लाये गए। आपात काल में सेंसरशिप थोप दी गई,
तो सिर्फ इसलिए कि प्रेस
के लिए संविधान में अलग से कोई सुरक्षा
कवच प्रदान नहीं किया गया था। आज जब हम
70 वां संविधान दिवस मना
रहे हैं। तो आवश्यकता इस बात की है कि हम
चितन करें कि मीडिया को समग्र आजादी कैसे
मिले। संविधान कैसे हमारी आजादी को
अक्षुण्य रखने की गारण्टी दे ?
जब देश का संविधान रचा
गया और इसे
26 नवम्बर 1949
को डा.
भीमराव अम्बेडकर ने सरकार
को समर्पित किया,
तब केवल समाचार पत्रों,
पत्रिकाओं और समाचार
एजेंसियों का ही अस्तित्व था। हालांकि
उनका प्रभाव काफी व्यापक था। लेकिन,
आज समय बदल गया है। अब
इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ-साथ,
वेब मीडिया ने एक
महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। यहां तक कि
ये दोनों मीडिया क्षेत्र समाज पर व्यापाक
प्रभाव भी डाल रहे हैं। सूचना तकनीक और
संचार माध्यमों के विकास के साथ ही सोशल
मीडिया ने दस्तक दी है। ये एक तरह से
सिटीजन जर्नलिज्म के रूप में उभरा। आज हर
युवा के हाथ में एक मोबाइल है और उस पर
इंटरनेट है। इस तरह हरेक के पास अपनी बात
कहने और उस पर प्रतिक्रिया देने के लिए
सशक्त माध्यम उपलब्ध है। उसे अपनी बात
कहने या प्रचारित प्रसारित कराने के लिए
किसी समाचार पत्र या अन्य मीडिया माध्यम
की आवश्यकता नहीं रह गई है। वह सोशल
मीडिया प्लेटफार्मों के माध्यम से इसके
लिए स्वयं ही सक्षम हो गया है। इस सक्षमता
और सोशल मीडिया की ताकत ने समाज में जहां
एक नई चेतना पैदा की है,वहीं
सत्ता तंत्र और शासक वर्ग में बेचैनी और
घबराहट भी पैदा कर दी है। क्योंकि इसे
रोकने का कोई उपाय नहीं है। ऐसी स्थिति
में सरकारों और प्रशासनिक तंत्र की ओर से
यह मांगें उठने लगी हैं कि सोशल मीडिया को
नियंत्रित किया जाए। इस पर तरह तरह के
आरोप मढे जा रहे हैं। हालांकि कुछ मायने
में लोगों से भी गलती हो रही है। किन्तु
इतनी नहीं कि इस सशक्त माध्यम को
नियंत्रित कर दिया जाए अथवा उसकी आजादी का
हनन कर दिया जाए । सरकारें नई नई नियमावली
बनाकर इसका उपयोग सीमित अथवा नियंत्रित
करने के प्रयास में लगी रहती हैं।
देश को सूचना के अधिकार के
माध्यम से जो शक्ति
2005 में मिली थी। उसी
तरह की शक्ति अथवा उससे भी अधिक सोशल
मीडिया के अभिव्यक्ति के अधिकार से मिली
है। एक तरह से कह सकते हैं कि साल
2010 के बाद सोशल मीडिया
ने अभिव्यक्ति के मामले में सबको पीछे
छोड़ दिया है। ऐसी स्थिति में इस सशक्त
माध्यम की आजादी की भी चिंता की जानी
चाहिए। आज जब हम मीडिया की आजादी की बात
करते हैं तो वह सोशल मीडिया की आजादी के
बगैर अधूरी है। जब हम प्रिंट,
इलेक्ट्रानिक और वेब
माध्यमों को सुरक्षा और स्वतंत्रता का कवच
प्रदान करने की मांग करते हैं तो समीचीन
होगा कि हम इसमें सोशल मीडिया को भी जोड़
दें। सोशल मीडिया को उसी तरह आजाद रखा
जाना लोकतंत्र के लिए जरूरी है जैसे किसी
अन्य समाचार माध्यम के रखना। इसलिए आज एक
अभियान की आवश्यकता है जो सोशल मीडिया
समेत समस्त मीडिया को स्वतंत्रत और
निष्पक्ष होकर काम करने का अवसर प्रदान
करे। हां इसमें इस तंत्र से जुड़े लोगों
को विवेक और संयम के साथ,
राष्ट्र
और समाजहित को ध्यान में रखते हुए सशक्त
माध्यम का उपयोग करने की सामर्थ्य विकसित
करनी होगी।
सरकार ने
1976 में जिस तरह संविधान
संशोधन करके नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों
को संविधान मे जोड़ा है तथा दायित्व
निर्धारित किये हैं। उसी तरह से एक और
संविधान संशोधन लाकर मीडिया की अभिव्यक्ति
और स्वतंत्रता के लिए भी अनुच्छेद जोड़
देना चाहिए। क्योंकि सिर्फ नागरिकों को
मिले अभिव्यक्ति के अधिकार से मीडिया की
आजादी अक्षुण्य नहीं रह सकेगी। इस पर बार-बार
आघात होते रहेंगे। (उप्रससे)।
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