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  क्या निर्वाचन आयोग चुनावों में धनबल का प्रयोग रोक सकेगा?
  -डा0 एस0 के0 पाण्डेय-
Tags: U.P. Election, Dr. S.kK. Pandey
Publised on : 05 March 2012, Time: 14:10 
  1. उत्तर प्रदेश में विधानसभा के गठन के लिये चुनाव हो चुके हैं। हमारे सम्मानित पाठक जब यह लेख पढ़ रहे होंगे तो निश्चय ही मतगणना भी हो चुकी होगी और परिणाम भी सामने होंगे। भारत निर्वाचन आयोग अपनी पीठ थपथपा रहा होगा कि शाँतिपूर्ण व निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न करा लिया गया। प्रसन्नता की बात है कि तमाम प्रचार-प्रसार का लाभ दिखा और मतदान प्रतिशत बढ़ा।

    लेकिन सवाल यह है कि “क्या निर्वाचन आयोग चुनावों में धनबल का प्रयोग रोक सका?” और क्या कभी वास्तव में निष्पक्ष चुनाव सम्भव होगा? ये ऐसे सवाल हैं, जो अभी भी अनुत्तरित ही हैं, और इनका उत्तर खोजना हर जिम्मेदार नागरिक का कर्त्तव्य है। चुनाव आयोग भले ही अपनी पीठ थपथपा ले कि उसने सोलह लाख रूपये से अधिक खर्च करने की अनुमति नहीं दिया और अपने आय-व्यय प्रेक्षकों को लगाकर प्रत्याशियों के चुनावी खर्च का पूरा हिसाब रखा। लेकिन वास्तविकता यह है कि चुनाव में धनबल का वीभत्स रूप देखने को मिला। पूँजीपति प्रत्याशियों ने धनबल का भरपूर प्रयोग किया और उसी के सहारे अपनी ‘हवा’ बनाये रखने में सफल रहे। और बहुतेरे जीत में भी सफलता प्राप्त कर लिये हों तो ताज्जुब नहीं।

    एक नमूना - निर्वाचन आयोग ने चौराहों पर ऐसी होर्डिंग लगाने से प्रत्याशियों व राजनैतिक दलों को रोक दिया, जिसमें एक की लागत अधिकतम दस हजार रूपये होती है। लेकिन समाचार पत्रों में ऐसे भारी भरकम विज्ञापन छापने की छूट दी गई और लगातार छपते भी रहे जिनमें एक की लागत दस लाख रूपये तक की होती है। अब निर्वाचन आयोग कह सकता है कि ऐसेे विज्ञापन तो ज्यादातर राजनैतिक दलों द्वारा जारी किये गये थे, न कि प्रत्याशियों के द्वारा। सवाल यह नहीं है कि प्रत्याशी स्वयं धन खर्च कर रहा है, अथवा अपने दल के माध्यम से। सवाल केवल यह है कि क्या धनबल का प्रयोग चुनाव में रोका जा सका अथवा नहींे? स्पष्ट है कि उत्तर ‘नहीं’ में ही मिल रहा है।

    मीडिया तंत्र की खूब चाँदी रही। केवल विज्ञापन में ही नहीं, ‘पेड न्यूज’ में भी। कभी-कभी मन में यह खयाल भी आता है कि अन्ना बाबा के आन्दोलन को धार देने वाला मीडिया तंत्र क्या सचमुच भ्रष्टाचारमुक्त लोकतंत्र चाहता है अथवा इस भ्रष्टाचार में केवल अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहता है। अगर भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी सुनिश्चित करना लक्ष्य है तो आने वाला समय खतरनाक है, क्योंकि मीडिया से समाज को गम्भीर अपेक्षाएँ हैं। मीडिया केवल व्यावसायिक प्रतिष्ठान मात्र नहीं है, उसे सामाजिक सरोकार से भी जुड़ना पड़ता है।

    मीडिया में प्रबन्धन के लोग कह सकते हैं कि विज्ञापन ही तो मीडिया का प्रमुख आर्थिक श्रोत है। उनका कहना सही है और उन्हें विज्ञापन तब तक लेते भी रहना चाहिये जब तक निर्वाचन आयोग होर्डिंग की ही भाँति उस पर भी प्रतिबन्ध न लगा दे। लेकिन उस विज्ञापन के आधार पर किसी प्रत्याशी विशेष की या राजनैतिक दल की अच्छी ‘हवा’ बताते हुये समीक्षा छाप देना गम्भीर मामला है। असली संकट तो उस समय शुरू होगा जब निर्वाचन आयोग विज्ञापन पर भी होर्डिंग की ही भाँति प्रतिबन्ध लगा देगा। जिन मीडिया हाउस का पेट चुनावी विज्ञापन से नहीं भर रहा था और चुनावी विज्ञापन को पाने के बाद भी ‘पेड न्यूज’ छाप रहे थे, वे लोग विज्ञापन पर प्रतिबन्ध लगने के बाद तो ‘पेड न्यूज’ का रेट भी बढ़ा देंगे और ‘पेड न्यूज’ के पेज भी बढ़ा देंगे, ऐसा खतरा हमें भयाक्राँत कर देता है।

    आखिर लोकतंत्र कैसे बचेगा? अगर मीडिया भी भ्रष्टाचारियों के साथ खड़ा हो गया तो लड़ाई थोड़ा कठिन हो जायेगी, लेकिन लोकतंत्र रक्षक सेनानियों का संघर्ष थमेगा नहीं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग अपनी पसन्द के प्रत्याशियों का साक्षात्कार लेकर क्या अप्रत्यक्ष रूप से उनका प्रचार नहीं कर रहे थे? क्या निष्पक्षता का तकाजा यह नहीं था कि एक चुनाव क्षेत्र के सभी प्रत्याशियों को बुलाकर सभी से बात करने का प्रयास किया जाता।

    अगला सवाल यह है कि ‘क्या कभी निष्पक्ष चुनाव सम्भव होगा?’ धनबल के उपरोक्त प्रभाव को देखते हुये तो यह आशंका बलवती होती ही जा रही है, निर्वाचन आयोग के पक्षपातपूर्ण व्यवहार से भी इस आशंका को बल मिलता है। निर्वाचन आयोग मान्यता प्राप्त दलों व पंजीकृत दलों में आखिर भेद क्यों करता है? मान्यता प्राप्त दलों की भाँति पंजीकृत दलों को भी स्थायी चुनाव चिन्ह आबँटित क्यों नहीं किया जाता है? मान्यता प्राप्त दलों की भाँति पंजीकृत दलों को मतदाता सूची उपलब्ध क्यों नहीं कराई जाती है, व अन्य सुविधायें क्यों नहीं दी जाती हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो चुनाव की पवित्रता व निष्पक्षता पर सन्देह पैदा कर देते हैं।

    इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग भी चुनाव को स्वच्छ व निष्पक्ष नहीं रहने दे रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के प्रयोग से चुनाव व मतगणना के कार्य में सुविधा हो रही है, लेकिन इसके खतरों की ओर शायद अभी तक निर्वाचन आयोग व आम लोगों का भी ध्यान नहीं गया है। निष्पक्षता पर खतरा इस बात की वजह से है कि मतगणना में प्रत्याशियों को यह भी पता चल जाता है कि किस प्रत्याशी को किस बूथ व किस गाँव व किस मुहल्ले में कितना वोट मिला। और मतों की स्थिति प्रत्याशी जान जायेगा, यह बात हर मतदाता को मालूम है। सामान्य मतदाता और खासकर गाँव व मुहल्ले के प्रभावशाली लोग, जो पंचायत चुनावों में अच्छे मतों से जीते होते हैं, उन पर बाहुबली प्रत्याशियों का दबाव रहता है कि अधिक से अधिक मत दिलाया जाय, अन्यथा............................................। और मजबूरन गाँव व मुहल्ले के प्रभावशाली लोगों को अपनी पूरी ताकत झोंक देनी पड़ती है।

    इस विसंगति का एक दूसरा पहलू भी है - धनबल के सहारे चुनाव लड़ रहे लोगों को भी सुविधा रहती है कि वे प्रत्येक बूथ पर किसी स्थानीय प्रभावशाली व्यक्ति से सम्पर्क करके उसे मोटी रकम के सहारे ठेका दे दें और यह सुनिश्चित करायंे कि उन्हें अधिकतम वोट मिल जाये। बैलट पेपर से होने वाले चुनाव में इस प्रकार की आशंका नहीं रहती थी।पोलिंग पार्टी के ठहरने व खाने पीने की समुचित व्यवस्था न होने से भी स्थानीय प्रभावशाली लोग या उनके माध्यम से धन बल के सहारे चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी उन्हें अपेक्षित सुविधा प्रदान करके मतदान को प्रभावित कर लेते हैं।

    ‘राइट टू रिजेक्ट’ या ‘उपरोक्त में कोई नहीं’ का विकल्प इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में न देने के पीछे क्या कारण है, यह भी स्पष्ट नहीं है। आखिर अगर कोई मतदाता अपनी यह राय जाहिर करना ही चाहता है कि उसकी दृष्टि में सभी प्रत्याशी अयोग्य हैं तो इसमें समस्या कहाँ है? निर्वाचन आयोग को पूर्वाग्रह छोड़कर लोकतंत्र के हित में इन सभी सवालों पर गम्भीरता व निष्पक्षता से विचार करना होगा।

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News source: U.P.Samachar Sewa

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