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  रेडियो नाटकों का यह कैसा मंचीय रूप?
  कृष्णमोहन मिश्र
Tags: Art and culture कला चर्चा
Publised on : 11 July 2012, Time: 20:29 
कुछ समय पूर्व आकाशवाणी, लखनऊ द्वारा स्थानीय एक प्रेक्षागृह में आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष रेडियो नाटकों की प्रस्तुतियाँ की गई थी। इस आयोजन में मेरे जैसे कई दर्शक थे जो एक अन्तराल के बाद आकाशवाणी के कार्यक्रम में शामिल हुए थे। यह आश्चर्यजनक था कि रेडियो नाटकों को श्रोताओं-दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत करने का जो परम्परागत स्वरूप था, अब वह बदल चुका है। दरअसल इस संध्या के सभी रेडियो नाटक परम्परागत रेडियो शिल्प के स्थान पर अनगढ़ मंचीय रूप में प्रस्तुत किये गए थे। इन प्रस्तुतियों को देख कर ऐसा प्रतीत हुआ, मानो कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने वालों को रेडियो नाटकों की शक्ति का आभास ही नहीं है। रेडियो नाटक हमेशा स्टुडियो के अन्दर, माइक्रोफोन के सामने अभिनय करते शब्दों, स्वरों के उतार-चढ़ाव और कुछ अतिरिक्त ध्वनियों से ही परिवेश, चरित्र और भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। यह एक सशक्त श्रव्य माध्यम है। वर्ष में एक-दो बार ये कलाकार स्टुडियो से बाहर निकल कर जनसामान्य के बीच आते रहते हैं। मंच पर आकर भी ये कलाकार स्टुडियो की तरह सामान्य वेषभूषा में माइक्रोफोन के सामने केवल शब्दोच्चार-कौशल से दर्शकों को चमत्कृत करते थे। सूट-टाई पहने कलाकार बादशाह अकबर का और पच्चीस वर्षीय युवक जब अस्सीवर्षीय दादाजी का अभिनय दर्शकों के सामने करता था तब सहज ही रेडियो और मंच नाटकों का अन्तर और दोनों विधाओं की अपनी अलग-अलग शक्ति का अनुभव हो जाता था।

ऐसे आयोजन का नामकरण ही होता था- 'आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष रेडियो नाटक' की प्रस्तुति। परन्तु इस संध्या में जो कुछ हुआ उसके लिए उपयुक्त शीर्षक था- 'रेडियो नाट्यालेखों का विकृत मंच प्रदर्शन'। संध्या की शुरुआत रामपुर केन्द्र के रेडियो कलाकारों द्वारा प्रस्तुत नफीस सिद्दीकी के लिखे नाटक ‘और शमा जलती रही’ से हुई। इस नाटक के लिए बाकायदा दृश्यबन्ध का प्रयोग किया गया था। यह सन्देह बराबर बना रहा कि दृश्यबन्ध प्रतीकात्मक था या यथार्थवादी। नाटक के कलाकार रेडियो नाटकों के लिए अनुमोदित थे, किन्तु मंच नाटक के लिए बिलकुल अनुपयुक्त। परिणाम यह हुआ कि एक अच्छा नाट्यालेख अनुपयुक्त शिल्प के कारण प्रभावहीन रहा। इसके विपरीत वाराणसी केन्द्र द्वारा प्रस्तुत दिनेश भारती का नाटक 'तस्वीर' एक सीमा तक ग्राह्य था। इसका कारण था, प्रस्तुति के कई कलाकार न केवल रेडियो के, बल्कि मंच के भी प्रशिक्षित और अनुभवी कलाकार थे। इन उदाहरणों को प्रस्तुत करने का आशय यह है कि रेडियो और मंच नाटकों की अपनी-अपनी सीमाएँ और विशेषताएँ हैं, इनमें घालमेल करना ठीक नहीं है।         

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद आकाशवाणी ने रेडियो नाटकों की एक भिन्न और सशक्त शैली विकसित की। यह विकास नाट्य-लेखन और प्रस्तुतीकरण, दोनों स्तरों पर हुआ। 1960 में केन्द्रीय नाटक एकांश अस्तित्व में आया, जिस पर रेडियो नाटकों को राष्ट्रीय स्तर पर जोड़ने और एक विशिष्ट नाट्य-शैली के रूप में विकसित करने का दायित्व था। चिरंजीत, सत्येन्द्र शरत, निर्मला अग्रवाल, दानिश इकबाल जैसी हस्तियों ने केंद्रीय नाटक एकांश से जुड़ कर रेडियो नाटकों को नया आयाम दिया। एकांश ने रेडियो-शिल्प में बँधे पूर्णकालिक नाट्यालेख तैयार करवाए, विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कराए, प्राचीन नाटकों और प्रतिष्ठित मंच नाटकों के रेडियो नाट्य रूपान्तरण कराए। एकांश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य था, प्रत्येक मास के चौथे गुरुवार को रात साढ़े नौ बजे से नाटकों के अखिल भारतीय कार्यक्रम के अन्तर्गत देश के सभी प्रसारण केन्द्रों से एक ही नाटक का हिन्दी सहित 22 भाषाओं में एकसाथ प्रसारण।

नाटक एक दृश्य-श्रव्य माध्यम है, परन्तु आकाशवाणी ने श्रव्य माध्यम में ही सीमित रहते हुए नाटकों की एक नई शैली का विकास किया। नाटक के कथ्य को शब्दों, ध्वनियों और संवाद-प्रस्तुति के माध्यम से सम्प्रेषित करने के मामले में मंच नाटकों की तुलना में रेडियो नाटक कहीं अधिक सशक्त सिद्ध हुआ है। स्वतन्त्रता के बाद जितनी अधिक संख्या में रेडियो के लिए विभिन्न भाषाओं में मौलिक नाटक लिखे गए, उतने मंच के लिए नहीं लिखे गए। रेडियो नाटकों का विकास राष्ट्रीय स्तर पर भी हुआ और क्षेत्रीय स्तर पर भी। पिछली शताब्दी के छठें और सातवें दशक के, कुछ ऐसे क्षेत्रीय रेडियो नाटकों के शीर्षक आज भी स्मृति-पटल पर अंकित हैं। लखनऊ केन्द्र का चन्द्रभूषण त्रिवेदी 'रमई काका' द्वारा प्रस्तुत 'बहिरे बाबा', इलाहाबाद केन्द्र का विनोद रस्तोगी द्वारा प्रस्तुत 'मुंशी इतवारी लाल', पटना केन्द्र का रामेश्वर सिंह कश्यप द्वारा प्रस्तुत 'लोहा सिंह' आदि अनेक रेडियो हास्य-व्यंग्य श्रृंखलाएँ हैं जिनके कीर्तिमान अविस्मरणीय है।

इन तथ्यों के उल्लेख का एकमात्र आशय यह है कि रेडियो नाटकों के वर्तमान कर्णधार, रेडियो नाटको की समृद्ध शक्ति को पहचानें और मंच-नाटकों की शैली के साथ घालमेल से बचें। 'आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत किये जाने वाले रेडियो नाटक' को रेडियो नाटक ही रहने दें, मंच-नाटकों की शैली में इस समृद्ध शैली का अपमिश्रण न करें।
 

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News source: U.P.Samachar Sewa

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