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आरोप-प्रत्यारोपों
की बौछार में यह समझना कठिन है कि कौन
सच्चा और कौन झूठा है, लेकिन इस चुनाव में
महत्वपूर्ण चिंता कांगे्रस की है।
कांग्रेस के शहजादे राहुल गांधी चैपाले
लगाकर राजनीति का पाठ पढ़ रहे है, जो स्वयं
को कांग्रेस का नेता मानते है, वे कपिल
सिब्बल, अमिन्दर सिंह, अंबिका सोनी ने
हिचकते हुए चुनाव लडना स्वीकार किया है।
मनीष तिवारी ने तो चुनाव लडने से इंकार ही
कर दिया है।
गुजरात के वड़ोदरा से कांग्रेस के नरेन्द्र
रावल को टिकिट दिया था, नरेन्द्र मोदी की
वहां से उम्मीद्वारी से वे इतने भयभीत हुए
कि उन्होंने हाइकमान से कह दिया कि वे
चुनाव लडना नहीं चाहते, अब कांग्रेस ने
अपने महासचिव मधूसुदन मिस्त्री को वहां से
मैदान में उतारा है। ऐसी ही स्थिति वाराणसी
सीट की है। मोदीजी को टक्कर देने की स्थिति
में कांग्रेस का कोई नेता नहीं है। आप के
प्रमुख अरविंद केजरीवाल अंडो और काले झंडों
से विरोध के बावजूद भी मोदी जी के सामने
खड़ा होने की घोषणा इसलिए कर पाये कि उन्हें
पराजय की पक्की उम्मीद के साथ २०१९ के
चुनाव में यह कहने का अवसर मिल जायेगा कि
नरेन्द्र मोदी का विकल्प राहुल गांधी नहीं
वे स्वयं है। यदि वे दो-पांच सीटों पर जीत
दर्ज कर सके तो, ये बाते भी हवा में उड़
जायेगी। उनके लिए यह चुनाव राजनैतिक सट्टे
के अलावा कुछ भी नहीं है।
कांग्रेस के
सामने प्रतिष्ठा बचाने की चुनौती
दूसरी ओर कांग्रेस के रणनीतिकार के सामने
सबसे अधिक कठिनाई यह है कि कांग्रेस की
प्रतिष्ठा को पराजय के बाद भी कैसे बचाया
जा सके। वैसे कांग्रेस के दिग्गजों ने
दीवार पर लिखी पराजय की इबारत को पढ़ ली
है। उनके गणित में सौ सीटें भी कांग्रेस
को नहीं मिल रही है। इसलिए उनकी कोशिश यह
है कि कांग्रेस किसी तरह सौ सीटों के
आसपास जीत दर्ज करा सके। कांग्रेस को आजादी
के बाद से इतने बुरे दिनों का सामना पहली
बार करना पड़ रहा है। २००२ के गुजरात दंगे
और साम्प्रदायिकता के आरोप को लोग नकार रहे
है। ये आरोप लालू, मुलायम की ढुगढुगी के
अलावा कुछ नहीं है। घिसी-पिटी रिकार्डों
को लोग सुनना पसंद नहीं करते। अब तो
जगदम्बिका पाल, रामविलास पासवान आदि कई
नेता-अभिनेता है, जो सेक्यूलर जमात के
योद्धा माने जाते थे, अब राष्ट्रवादी कुनबे
के महावीर की तरह बतियाते है। जिस दक्षिण
के तमिलनाडू में भाजपा का प्रभाव शून्य
माना जाता रहा है, वहां के पांच क्षेत्रीय
दल एनडीए में शामिल हो गये है। नागार्जुन
जैसा लोकप्रिय अभिनेता मोदीजी की प्रशंसा
करता है। हालत यह है कि यूपीए का साथ
क्षेत्रिय दल छोड़ रहे है और एनडीए से नये
दल जुड़ते जा रहे है। अभी तक करीब एक दर्जन
से अधिक छोटे बड़े दल एनडीए का हिस्सा बन
चुके है। अब यूपीए में लालू यादव के राजद
के अलावा कोई कांग्रेस का साथ देने को
तैयार नहीं है।
कश्मीर घाटी में भाजपा का प्रभाव नहीं के
जैसा है, लेकिन भाजपा के पक्ष में चल रही
लहर के कारण श्रीनगर से भी आरिफ नजीर को
भाजपा ने खड़ा दिया है। आश्चर्य यह है कि
जो कश्मीरघाटी भाजपा के नाम से आग बबूला
होती रही वहां की जीडीपी पार्टी की
अध्यक्ष मेहबूबा मुफ्ती ने ऐसा बयान दिया
है, मानों उन्होंने मोदी जी का बचाव किया
है, उन्होंने अपने बयान में कहा कि देश
में कई वर्षों से दंगे होते रहे है, फिर
भी किसी मुख्यमंत्री ने इस कारण इस्तीफा
नहीं दिया। फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला
और उनके जैसो को फायदा मिला तो वे एनडीए
में घुस गये, उन्होंने वहां सत्ता का सुख
प्राप्त किया। उसके बाद एनडीए छोडकर चले
गये, क्या उनके किसी दल के जुडने से यह तय
होगा कि कौन कम्युनियल और कौन सेक्यूलर है
? अब तो बहस का यह मुद्दा भी नहीं रहा कि
कौन सेक्यूलर (साम्प्रदायिक) है।यह मुद
अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। भारतीय
राजनीति का पानी ऐसा है कि इसमें जो भी
रंग डालो वैसा दिखाई देता है।
निराधार आरोपों
की बाढ़ आयी
वैचारिक बहस पहले होती थी। भाजपा,
कांग्रेस कम्युनिस्टों में वैचारिक भेद की
रेखाएं दिखाई देती थी, लेकिन इन दिनों
छिछोरे और निराधार आरोपों की बाढ़ आई हुई
है। एक समय कांग्रेस से जुडने की स्पर्धा
चलती थी, जनसंघ और भाजपा के विचार
राष्ट्रवादी होते हुए भी इन पर विपक्षी
साम्प्रदायिकता का आरोप लगाते थे, पं.
नेहरू से लेकर इंदिराजी तक कमोवेश यही
स्थिति रही। कांग्रेस के साथ रहने से सत्ता
सुख मिलता है इसलिए क्षेत्रीय दल और उनका
नेतृत्व कांग्रेसनीत गठबंधन (यूपीए) के
साथ जुड़ते रहे। एनडीए के साथ भी दो दर्जन
दल ऐसे जुड़े जिनका विचारों से कोई सरोकार
नहीं था। सर्वमान्य एजेन्डे पर अटल बिहारी
वाजपेयी के नेतृत्व में छह वर्ष तक सफल
सरकार चली। गठबंधन राजनीति का प्रयोग अटलजी
द्वारा सबको साथ लेकर चलने की स्थिति के
कारण सफल हुआ। उनके कार्यकाल में न केवल
पाकिस्तान द्वारा कारगिल में की गई घुसपैठ
को असफल किया, बल्कि विदेशी दबाव की परवाह
किये बिना पोरखरण में परमाणु परीक्षण किया।
इस कारण भारत परमाणु शक्ति संपन्न देशों
की श्रेणी में आ गया।
आज जब यह कहा जाता है कि चीन न केवल उत्तरी
सीमा पर बल्कि समुद्री सीमा पर भी भारत को
चुनौती दे रहा है, उसका मुकाबला करने की
स्थिति क्या भारत की है। इस प्रश्न की
भयानकता इस बात से व्यक्त होती है कि
भारतीय सेना के पास आवश्यक गोला बारूद आदि
बीस दिन से अधिक का नहीं है, जबकि महिनों
चलने वाले युद्ध का बारूद और साजो सामान
भारत के पास होना चाहिए। सुरक्षा की यह
स्थिति १९६२ जैसी हो गई है। चीन पाकिस्तान
से मिलने वाली चुनौती का सामना हम तभी कर
सकते है, जब पाकिस्तान और चीन के हमले का
सामना करने की स्थिति में भारत हो।
राष्ट्रवादी सोच का नेतृत्व ही भारत को
शक्ति संपन्न बना सकता है। नरेन्द्र मोदी
ने इंडिया फस्ट-तेुनवय का नारा दिया है।
पाकिस्तान की ओर से घुसपैठ अक्सर कश्मीर
की ओर की सीमा से होती है, लेकिन मोदी के
कार्यकाल में एक भी घुसपैठ गुजरात के कच्छ
की सीमा की ओर से नहीं हुई।
आप की चर्चा
सिर्फ मीडिया में
चुनावी माहौल में नई आम आदमी पार्टी के
उदय की चर्चा मीडिया में अधिक हो रही है।
दिल्ली में दूसरे क्रमांक की पार्टी होने
से कांग्रेस के समर्थन से यह सरकार ४९ दिन
चली। यह भी उसी तरह की पार्टी है, जिस तरह
लालू यादव की राजद, मुलायम की सपा, जयललिता
की एडीएमके, करूणा निधि की डीएमके, ममता
की तृणमूल कांग्रेस और मायावती की बसपा
है, इन परिवारवादी पार्टियों के साथ
कांग्रेसि का नाम भी जोड़ा जा सकता है। चाहे
कांग्रेस की गिनती राष्ट्रीय दल के नाते
होती हो लेकिन यह भी सोनिया-राहुल के
परिवार की किचन पार्टी है। इस परिवारवादी
वायरस से अलग भाजपा को ही राष्ट्रवादी सोच
पर आधारित पार्टी माना जा सकता है। इसमें
भी बेटे बेटियों एवं परिवार के लोगों को
टिकिट देने या पदों पर आसीन करने की बुराई
आ रही है, लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व में ऐसी
स्थिति नहीं बनी है।
पहली बार ऐसी स्थिति बनी है कि राष्ट्र
केन्द्रित विचार से प्रभावित भाजपा के
पक्ष में माहौल बना है, नरेन्द्र मोदी जनता
की पहली पसंद है। इन दिनों गूगल, वेबसाइट
और सोशल मीडिया का प्रचार माध्यम के रूप
में खूब उपयोग हो रहा है, विदेशी मीडिया
की बातों को भी जनमत संग्रह का आधार माना
जाता है। विदेशी मीडिया में पहले नरेन्द्र
मोदी और राहुल के बीच मुकाबला माना जा रहा
था, अब इसमें राहुल गांधी गायब हो गये है,
उनके स्थान पर अरविंद केजरीवाल की चर्चा
होने लगी है। इसका आशय यह है कि चुनावी
मैदान से राहुल ओझल हो रहे है और अब मैदान
में केवल केजरीवाल है, मतदान के दिन तक
शायद केजरीवाल भी मैदान से पलायन करते
दिखाई दे।
देश की जनता को यह ध्यान रखना होगा कि
राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति न बने। ऐसी
स्थिति में सत्ता सुख की बंदर बांट होती
है और देश का सुनिश्चित विकास नहीं हो पाता।
हवा में तैरते मोर्चें के सपने देखने वाले
प्रायरू सभी क्षेत्रीय क्षत्रप है। जय
ललिता, ममता से लेकर मुलायम सिंह तक
बार-बार कह रहे है कि भाजपा के एनडीए
गठबंधन और कांग्रेस के यूपीए गठबंधन को
स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सकता। इसलिए तीसरे
मोर्चें को सत्ता केन्द्र में आने का अवसर
मिलेगा। क्या इस भावलोक में घूम रही
महत्वाकांक्षा राष्ट्रहित को पूरा कर सकेगी।
ऐसी सरकारों का जीवन एक डेढ़ वर्ष से अधिक
नहीं होता। देवगौड़ा और गुजराल की
अल्पकालीन सरकार को देश भुगत चुका है।
कांग्रेस की स्वतंत्रता के बाद सरकारें रही।
इसका चरित्र भी सत्ता के शहद के छत्ते के
आस-पास मंडराती मक्खियों जैसा रहा है। आज
देश को आंतरिक और बाह्य समस्याओं और संकटों
से निपटने के लिए दृढ़ संकल्प शक्तिवाला
नेतृत्व चाहिए।
नेपाल के रास्ते से आये पाकिस्तानी
आतंकवादी घातक हथियारों के साथ पकड़े गये।
ये नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाने की
साजिश रच रहे थे। मोदी की पटना रैली और
झारखंड की रैली में धमाके भी हुए। यह सवाल
चिन्तन और चिन्ता का हो सकता है कि केवल
नरेन्द्र मोदी को ही निशाना क्यो बनाना
चाहते है। इसका उत्तर यही हो सकता है कि
देश का राष्ट्रवादी नेतृत्व यदि केन्द्रीय
शासन में रहा तो देश समृद्धि के रास्ते पर
तेजी से आगे बढ़ेगा, वह ऐसी शक्ति का सृजन
करेगा, जिससे कोई उसको चुनौती नहीं दे सके।
यहीं कारण है कि विदेशी शक्तियां चाहती है
कि भारत एक कमजोर देश बना रहे। यही कारण
है कि पाकिस्तान के आतंकवादी नरेन्द्र मोदी
को समाप्त करना चाहते है। |